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कालगायरियका
( ख्यातनाम जैनाचार्य श्रीकालकसूरि का जीवनकाल वीर संवर ४०० से ४६५ तक ( ई. स. पू. १२६ से ६१ तक ) माना जाता है। इस महान् आनार्य की बोधपरक जीवन-कथा अनेक जैनाचार्यों ने प्राकृत, संस्कृत तथा गुजराती भाषाओं में रोचक शैली में गद्य तथा पद्य में लिखी है । सर्वप्राचीन कथा श्रीजिनदास महत्तर विरचित निशीथचूणि तथा आवश्यकचणि ( संवत् ७३३ ) में मिलती है। श्री भद्रबाहुस्वामि, मलधारी हेमचन्द्रमूरि, श्री भद्रेश्वर, श्री धर्मघोषसूरि, अज्ञालसूरि, श्री विनयचन्द्रसूरि आदि ने प्राकृत में, देवेन्द्रसूरि, श्री रामभद्र, महेश्वरसूरि, आदि ने संस्कृत में तथा श्री रामचन्द्रसूरि और,श्री गुणरत्नसुरि ने प्राचीन गुजराती में कालक. कथा लिखी है । उन विविध कथाओं के माधार से विद्यार्थियों के लिए मैने सुलभ प्राकृत ( जैन महाराष्ट्रो ) में इस कथा की रचना की है। श्री साराभाई मणिलाल नवाब ( अहमदाबाद ) ने श्री कालक-कथा-संग्रह के दो भाग ई. स. १९४९ में प्रकाशित किये हैं। पहले भाग में उन्होंने अंग्रेजी में विविध कथाओं का तौलनिक विवेचन किया है और इसमें प्रसंगानुरूप प्राचीन सुन्दर सुन्दर चित्र भी दिये हैं । दूसरे भाग में प्राकृत संस्कृत और गुजराती भाषा में लिखी गयी विविध कथाएँ संग्रहीत की है । इस कथा
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