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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १ ) कर लेने के सम्बन्ध में उसे तथा उसके सहचरों परिचारकों को खूब फटकार बताते हुए यह निर्भम कहते हैं कि विना पथ्य में बिगाड़ किये ऐसा हो हो नहीं सकता, और अपना पल्ला छुटाने के लिये यहां तक कह बैठते हैं, कि “अब मैं इसकी चिकित्सा भी नहीं करता, तुम तो पथ्य को बिगाड़ लेते हो और मुझे बदनामी देने को तैयार हो । मैं यह नहीं चाहता तुम दूसरा प्रबन्ध करो।” उस समय वैध जो के इन वचनों से रोगी के घरवालों पर जो बीतती है उसे सारो उमर भूल नहीं सकते। विचारे जैसे तैसे उसे फिर मनाकर उससे चिकित्सा कराते हैं । यदि कहीं दैवयोग से आराम न हुआ तो वैध जो अपनी इस अप्रतिष्ठा को बचाते हुए यह प्रचार करते फिरते हैं, कि अमुक ने अपना पथ्य ठीक नहीं रखा, विगाड़ दिया, जिससे औषधि गुण न कर सको। इससे भी लोगों के मन में यह भाव बैठ जाता है, कि आयुर्वेद के पथ्य के बिगाड़ से इतना अनिष्ट हो सकता है और वे इससे यथा सम्भव दूर रहने का यत्न करते हैं। ऐसे ऐसे कई कारण उपस्थित होगये, कि जिनसे पथ्य का डर लोगों के हृदय में बढ़ता ही जाता है। अब इसके लाभ के स्थान में लोग समझने लगे हैं, कि यदि बी (?) के कहे पथ्य में कभी किंचित् भी भूल हो जाय तो महान् अनर्थ होजाना बहुत सम्भव है। इसी से अनेक लोग आयुवेद का महत्व जानते हुए भी चिकित्सा कराते भय खाते हैं, और अपनी आयु भर को सभी अवस्थाओं में निरोगता प्राप्त करने के लिये वैओं की शरण में नहीं पहुंचते हैं, यही नहीं अपने मित्रादिकों को भी अपना अनुगामी बनाने के लिये उनकी अस्वस्थता में सहृदयता के भाव से अपने मनोगत विचारों को प्रकट कर उनके भो हृदयों को निर्बल और शंकित करते रहते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020550
Book TitlePathya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchand Tansukh Vyas
PublisherMithalal Vyas
Publication Year
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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