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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४. आत्मवत् सर्व भूतेषु मानव भले ही किसी भी दर्शन का अनुरागी..... प्रेमी हो, लेकिन आखिर है तो वे भी आत्माएँ ही । अतः ऐसी प्रवृत्ति कदापि नहीं करनी चाहिए, जिससे उक्त आत्माओं को शोक, भय, आवेग व संताप पहुँचे । - श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी बडौदा दिनांक : १४-४-१९१२ अध्यात्मज्ञान से हमारी द्रष्टि विशाल... विराट् बनती है । साथ ही उसके माध्यम से धार्मिक आदि अनेकानेक क्रियाओ में रही विमिन्नता के उपरांत भी प्रत्येक क्रिया में रहे सात्त्विक रहस्य को सम्यक् रीत से आकृष्ट कर सकते हैं । प्रत्येक आचार्य के विचारों का केंद्र बिंदु क्या है, यह ज्ञात किये बिना उनकी विभिन्न उपदेश श्रेणी की पुस्तकों का पढन करना निहायत कठिन कार्य है । यदि संकुचित द्रष्टिलोग को विशालता में परिवर्तित करना हो तो अध्यात्म- शास्त्र आदि अनेकानेक शास्त्रों का अध्ययन मनन कर सम्बन्धित प्रत्येक ग्रंथकर्ता के आशयों को खोज निकालना परमावश्यक है । सर्व प्रकार के ग्रंथो में रहे सारांश को ग्रहण करने की शक्ति व क्षमता प्राप्त करनी चाहिए। आधुनिक युग गुणानुरागी दृष्टि अपना कर प्रत्येक में से सारांश ग्रहण करने की सीख देता है। विश्व रूपी विद्यालय में से अनेक प्रकार का ज्ञान प्राप्त कर सकते जगत में गुण व अवगुण दोनों हैं। अतः अवगुण देखनेवाले जीवन में अवगुण ग्रहण करते हैं और सद्गुणों के अनुरागी सद्गुण । वस्तुतः आत्मा ही परमात्मा है। इस बात का निश्चय होते ही हृदय में अद्भुकत त्याह का संचार होता है और जिस बाबत की रुचि प्रदर्शित की जाती है, उसमें मुदा प्रवृत्ति कर सकते हैं। १२६ For Private and Personal Use Only
SR No.020549
Book TitlePath Ke Fool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagarsuri, Ranjan Parmar
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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