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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८. प्रशस्त राग हमेंशा आत्म-साध्य को परिलक्षित कर सज्वलन क्रोध, माया, मान, एवं लोभ को प्रशस्य रूप में परिमत करने चाहिए। - श्रीमद् बुद्धिसागर बदौदा दिनांक : ६-४-१९१३ वर्तमानकाल में सराग संयम है । परन्तु प्रशस्य रागादि के प्रति सद्भाव संयम कहलाता है । लेकिन अप्रशस्य रागादि के प्रति सद्भाव सराग नहीं कहलोता । ____ संयम के भी असंरव्य भेद हैं । जिस राग व द्वेष से संवर तत्त्व सम्मुख होता उसे प्रशस्य राग-द्वेष कहा जाता है । अप्रस्य राग-द्वेष परिणाम को नाम रखने मात्र से वह नष्ट नहीं होता । कितुं देव-गुरु आदि शुभ आलम्बन का शरण-ग्रहण किया जाय तो ही अवश्य रागादि को प्रशस्य रागादि में परविर्तित किया जा सकता है। शुभ अपने चारोंओर शुभ निमितों की रक्षा-पंक्ति खडी कर दे । परिणामतः अशुभ परिणामों के संयोग प्राप्ति होने के बावजूद भी शुभ-परिणाम धारन किये जा सकते है. निमित्त के अभाव में मंगल-भावना की प्राप्ति कदापि नहीं होती । अतः मानव को चाहिए कि वह प्राध्यात्म ज्ञान की तीव्र परिपक्य दशा के तीव्र उपयोग से आश्रब के हेतुओ के संवर रूप में परिणत कार्य जा सकते हैं ऐसा अवश्य होता है । अनुभव से देखने पर इस विषय पर श्रद्धा होती है । अत्मा का बाम्यग्ज्ञान प्राप्त करने से उसमें उच्च कोटि का विवेक प्रकट होता है। फलस्वरूप आश्रव के हेतुओ को भी संवर रूप में परिणित होने की शक्ति प्रकह होती हैं। अज्ञानी जन अध्यात्म ज्ञान की परपिक्व दशा के अहंत्व को मान कर यह न ११४ . For Private and Personal Use Only
SR No.020549
Book TitlePath Ke Fool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagarsuri, Ranjan Parmar
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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