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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६. बिना बुलाये मेहमान लेकिन उसे प्रकट किये बिना तो - आत्मा की पूर्ण सिद्धि नहीं हो सकती -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी बडौदा दिनांक : ४-४-१९१२ तार्किक शिरोमणि उपाध्यायजी महाराज श्री यशोविजयश्री 'श्रीपाल रास' में कहते हैं कि, छठवें गुणस्थानक के बनिस्बत सातवें ‘अप्रमत्त' गुणस्थानक का काल (अवधि) विशेष है। मन में निंदा, विकथा, अहं कारादि दोषों के उत्पन्न होते ही उन्हें जडमूल से निर्मूलन करना चाहिए। मानव स्वयं की आत्मा किन-किन दोषों से ग्रसित हैं, यह समझने में समर्थ हो जाता है तब तथाकथित दोषपुंज को छिन्न-भिन्न करने हेतु प्रयत्नशील रहता है। क्योंकि अपने में निहित दोष जान लेने के उपरांत भी उद्यम....पुरूषार्थ किये बिना उनका संहार (नाश) नहीं होता। ___अंतर में रहे अहंकारादि दोषों के निर्मूलन हेतु तीव्र भावना उत्पन्न होनी निहायत आवश्यक है। हमारे हृदय में सद्गुणों के प्रति अत्यंत प्रेम भाव उत्पन्न होने पर अनायास ही दोषों के प्रति कतई रुचि नहीं रहती। साथ ही दोष की जड़ें खोखली होने लगती हैं और धीरे धीरे सर्व दोषों से मुक्ति मिल जाती है । स्वयं में सर्वाधिक दोष होने के उपरांत भी जो अपने को सर्वगुणसम्पन्न समझ लेता है। ऐसा व्यक्ति गुणों को उजागर (प्रकटित) करने हेतु उद्यमशील नहीं रहता। . हमारी आत्मा की गहराई में अनंत गुण सुप्तावस्था में रहे हुए हैं। लेकिन उन्हें प्रकाशित किये बिना आत्मा की पूर्ण सिद्धि असंभव है। आगम-साहित्य, न्याय व व्याकरण का अध्ययन-स्वाध्याय कर पंडित हो सकते हैं लेकिन आगमाध्ययन करने के उपरांत मन में उत्पन्न होनेवाले क्रोध, ११० For Private and Personal Use Only
SR No.020549
Book TitlePath Ke Fool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagarsuri, Ranjan Parmar
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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