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________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 62/पाण्डुलिपि-विज्ञान . जिनसे पुस्तकों को चित्रित करने के लिए भाँति-भाँति के रंग बनाये जाते थे । ये रंग स्याही की तरह ही काम करते थे। सचित्र ग्रन्थों का महत्त्व गे सचित्र ग्रन्थ कई कारणां से महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं : एक तो ग्रन्थ-रचना के इतिहास में सचित्र पांडुलिपियों का महत्त्व है क्योंकि इन सचित्र ग्रन्थों से विदित होता है कि मानव अपनी अनुभूतियों को किस-किस प्रकार की रंगीनियों और चित्रोपमताओं से व्यक्त करता रहा है । इन अभिव्यक्तियों में उस मानव और उसके वर्ग के सांस्कृतिक बिम्ब भी समाविष्ट मिलते हैं। दूसरे चित्रित पांडुलिपियों में विविध प्रकार के आकारांकन और अलंकरण मिलते हैं । इनमें इन अंकनों के अनन्त रूप चित्रित हुए हैं जो स्वयं चित्रों की अलंकरण कला के इतिहास के लिए भारी सार्थकता रखते हैं । तीसरी बात यह है कि मध्य युग में भारत में दसवीं शताब्दी से पांडुलिपियों में अंकित चित्र' ही एकमात्र ऐसे साधन हैं, जिनसे मध्ययुगीन चित्रकला की प्रवृत्तियाँ एवं स्वरूप समझे जा सकते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि चित्रित पांडुलिपियों में रंग कौशल के साथ कुछ अन्य बातें भी हैं जो देखनी होती हैं । कविता और चित्रकला दोनों ही प्रमुख ललित कलाएँ मानी गई हैं । इसलिए कवि और चित्रकार का चोली-दामन का सा साथ है । जैसे ग्रन्थ को चित्रों से सजाकर सचित्र बनाया जाता था वैसे ही चित्रों को भी कई बार सलेख बनाया जाता था, अर्थात् ग्रन्थ के विषय को समझाने के लिए जैसे चित्र-चित्रित कर दिये जाते थे उसी प्रकार किसी चित्र के विषय को स्पष्ट करने के लिए उस पर लेख या कविता की पंक्ति अंकित कर दी जाती थी। ऐसे चित्र-कर्म के लिए विविध रंगों की स्याहियाँ तैयार की जाती थीं। ___ भोजदेव कृत 'समराँगण-सूत्रधार' (11वीं० श०) में चित्रकर्म के आठ अंगों का वर्णन है । इसी प्रकार विष्णुधर्मोत्तरपुराण में भी चित्रकर्म के गुणाष्टक वणित हैं । इन दोनों में अन्तर अवश्य है, परन्तु लेखन अथवा लेखकर्म प्रायः समान रूप से ही उल्लिखित हैं । ये हैं--1. वतिका, 2. भूमिबन्धन, 3. लेख्य अथवा लेप्य, 4. रेखाकर्माणि, 5. वर्णकर्म (कर्ष कर्म), 6. वर्तनाक्रम, 7. लेखन अथवा लेखकर्म और 8. द्विक कर्म-यह क्रम 'समरांगणसूत्रधार' में बताया गया है। 1. 'वर्तिका' एक प्रकार का 'बरता' या पेंसिल होती है । इसको बनाने का प्रकार यह है कि या तो एक विशेष प्रकार की मिट्टी (जैसे पीली या काली) लेते हैं और उसका लकीरें खींचने में प्रयोग करते हैं अथवा दीपक का काजल लेकर उसको चावल के चूर्ण या आटे में मिलाते हैं और थोड़ा सा गीला करके पेंसिलां जैसी यष्टिका बना कर सुखा देते हैं । चावल के आटे के स्थान पर उबला हुआ चावल भी काम में लिया जा सकता है . 2. 'भूमिबन्धन' से तात्पर्य है चित्र या लेख का आधार स्थिर करना जैसे-दीवार, 1. विस्तृत विवरण के लिए देखिये-भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेग्युन कला', पृ० 119। 2. अंग्रेजी में इन्हें मिनिएचर (Miniature) कहते हैं । For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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