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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपि-ग्रन्थ रचना-प्रक्रिया / 61 चमकते अक्षरों से सजावट कराना। ऐसी सजावट का आरम्भ पश्चिम में 14 वीं शताब्दी मे माना जाता । दाँते ने और चॉसर ने ऐसे चित्रित हस्तलेखों का उल्लेख किया है। भारत में 'अपभ्रंश शैली' के चित्र जो 11वीं से 16वीं शताब्दी तक बने मुख्यतः हस्तलिखित ग्रन्थों में मिलते हैं । डॉ. रामनाथ ने बताया है कि “मुख्यतः ये चित्र जैन धर्म सम्बन्धी पोथियों (पांडुलिपियों) में बीच-बीच में छोड़े हुए चौकोर स्थानों में बने हुए मिलते हैं ।" इन चित्रों में पीले और लाल रंगों का प्रयोग अधिक हुआ है । रंगों को गहरागहरा लगाया गया है । "गुजरात के पाटन नगर से भगवती सूत्र की एक प्रति 1062 ई० की प्राप्त हुई है । इसमें केवल अलंकरण किया गया है । चित्र नहीं है सबसे पहली चित्रित कृति ताड़पत्र पर लिखित निशीयचूरिर्ण नामक पांडुलिपि है जो सिद्धराज जयसिंह के राज्य काल में 1100 ई० में लिखी गई थी और अब पाटन के जैन-भण्डार में सुरक्षित है । इसमें बेल बूटे और कुछ पशु-आकृतियाँ हैं । 13वीं शताब्दी में देवी-देवताओं के चित्रण का बाहुल्य हो गया। अब तक ये पोथियाँ ताड़पत्र की होती थीं। 14वीं शताब्दी से कागज का प्रयोग हुआ 11 हमें विदित है कि 14वीं शताब्दी में पश्चिम में पार्चमेंट पर पांडुलिपि लिखी जाती थी और उन्हें चित्रित भी किया जाता था । भारत में 3 शताब्दी पूर्व ताड़पत्र पर ही यह चित्र कर्म होने लगा था। भारत में 14वीं शताब्दी तक प्राय: जैन धर्म-ग्रन्थ सचित्र लिखे गये, उधर 'पाल शैली" की चित्रांकित पुस्तकें बौद्ध-धर्म-विषयक थीं। प्राचीनतम पांडुलिपि 980 ई० की मिलती है। डॉ० रामनाथ के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं। "पाल शैली के अन्तर्गत चित्रित पोथियाँ तालपत्रों में हैं । लम्बे-लम्बे तालपत्र के एक से टुकड़े काट कर उनके बीच में चित्र के लिए स्थान छोड़ कर दोनों ओर ग्रन्थ लिख दिया जाता था । नागरीलिपि में बड़े सुन्दर अक्षरों में यह लिखाई की जाती थी । बीच के खाली स्थानों में सुरुचिपूर्ण रंगों में चित्र बनाये जाते थे । सुन्दर और सुघड़ प्राकृतियाँ बनायी जाती थीं । जिनमें बड़े आकर्षक ढंग से आँखों और अन्य अंग-प्रत्यंगां का आलेखन होता था 13 1451 में चित्रित बसंत - विलास के समय से कला जैन-बौद्ध एवं वैष्णव धर्म का पल्ला छोड़ कर लौकिक हो चली । यह एक नया मोड़ था । काम-शास्त्र के ग्रन्थ ही नहीं, प्रेम गाथाएँ जैसे चन्दायन, मृगावती आदि भी सचित्र मिलती हैं । ये चित्र बहुधा रंगीन होते थे । विविध रंगों से चित्रित किये जाते थे । विविध रंगों की स्याही या मषी बनाई जाती थी । काली, लाल, सुनहरी - रुपहली ग्रादि रंगीन स्थाहियों का विवरण ऊपर दिया जा चुका है। लाल रंग हिंगलू से, पीला हड़ताल से, धौला या सफेद सफेदे से तैयार किया जाता था । अन्य मिश्रित रंग भी बनाये जाते थे जैसे, हड़ताल एवं हिंगलू मिला कर नारंगी, हिंगलू और सफेद से गुलाबी, हरताल और काली स्याही मिला कर नीला रंग बनाया जाता था । इसी प्रकार अन्य कई विधियाँ थीं 1. रामनाथ (डॉ.) - मध्यकालीन भारतीय कलाएं और उनका विकास, पृ० 6-7। 2. वही, पृ० 6-7 3. वही, पृ० 6-7 For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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