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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 58/पाण्डुलिपि-विज्ञान लिखने की स्याही बनाने की उपयोगी विधि है, अन्य रसायनों को मिलाने से वे उसको खा जाते हैं और अल्पायु बना देते हैं, जैसे-भांगरा डालने से अक्षरों में चमक तो पाती है परन्तु आगे चलकर कागज काला पड़ जाता है। इसी तरह लाक्षारस, स्वांग या क्षार आदि भी हानिकारक हैं । वीआरस बीया नामक वनस्पति की छाल का चूर्ण बनाकर पानी में औटाने से तैयार होता है। इसको इसलिए मिलाया जाता है कि स्याही गहरी काली हो जाती है । परन्तु यदि आवश्यकता से अधिक बीपारस पड़ जाय तो वह गोंद के प्रभाव को कम कर देता है और ऐसी स्याही के लिखे अक्षर सूखने के बाद उखड़ जाते हैं । लाक्षारस इस कारण डाला जाता है कि इससे स्याही कागज में फूटती नहीं है । खौलते हुए साफ पानी में जरा-जरा सा लाख का चूर्ण इस तरह से डालकर हिलाया जाता है कि वह उसमें अच्छी तरह धुलता जाय, उसकी लुगदी न बनने पावे। बार-बार किसी सींक या फरड़े को उसमें डुबोकर कागज पर लकीर खींचते हैं। शुरू में जब तक लाख पानी में एकरस नहीं होती तब तक वह पानी कागज में फूटता है पर जब अच्छी तरह लाख के रेशे उसमें एकाकार हो जाते हैं तो वह रस कागज पर जम जाता है। इसकी मात्रा में भी यदि कमीवेशी हो जाय तो स्याही अच्छी नहीं बनती। स्याही : विधि निषेध स्याही बनाने के सम्बन्ध में कुछ विधि निषेध भी हैं - यथा- कज्जल बनाने के लिए तिल के तेल का दिया ही जलाना चाहिए। किसी अन्य प्रकार के तेल से बनाया हुया काजल उपयोगी नहीं होता । गोंद भी नीम, खेर या बबूल ही का लेना चाहिए । इसमें भी नीम सर्वश्रेष्ठ है । धोंक (धव) का गोंद स्याही को नष्ट करने वाला होता है। स्याही में रीगणी नामक पदार्थ, जिसे मराठी में 'डोली' कहते हैं, डालने से उसमें चमक आ जाती है और मक्खियाँ पास नहीं पातीं। जिस स्याही में लाख, कत्था और लोहकीट का प्रयोग किया जाता है उसे ताड़-पत्र आदि पर ही लिखने के काम में लेना चाहिए, कागज और कपड़े पर इसका प्रभाव विपरीत पड़ता है। वह कागज आगे चलकर क्षीण हो जाता हैप्रति लाल पड़ जाती है और पत्र तड़कने लगते हैं। बीआरस की मात्रा अधिक हो जाने से गोंद की चिकनाहट नष्ट हो जाती है और ऐसी स्याही से लिखे पत्रों की रगड़ से अक्षर घुलमिल जाते हैं और प्रति काली पड़ जाती है । ___ जब किसी संग्रह के ग्रन्थों को देखते हैं तो विभिन्न प्रतियाँ विभिन्न दशा में मिलती हैं । कोई-कोई ग्रन्थ तो कई शताब्दी पुराना होने पर भी बहुत स्वस्थ और ताजी अवस्था में मिलता है। उसका कागज भी अच्छी हालत में होता है और स्याही भी जैसी की तैसी चमकती हुई मिलती है; परन्तु कई ग्रन्थ बाद की शताब्दियों में लिखे होने पर भी उनके पत्र तड़कने वाले हो जाते हैं और अक्षर रगड़ से विकृत पाये जाते हैं। कितनी ही प्रतियाँ ऐसी मिलती हैं कि उनका कुछ भाग काला पड़ा हुआ होता है । ऐसा इसलिए होता है कि वर्षा के बाद कभी-कभी धूप में रखते समय जिन पत्रों को समान रूप से ऊष्मा नहीं पहुँचती अथवा आवश्यकता से अधिक समय तक धूप में रह जाते हैं उनके कुछ हिस्सों की सफेदी उड़ जाती है । कुछ लेखक तो स्याही में चिथड़ा डाल देते हैं (कभी-कभी सर्पाकार) जिससे वह अधिक गाढ़ी या पतली न हो जाय । परन्तु कुछ लेखक लोहे के टुकड़े या कीलें दवात में रख देते हैं । अपर दशा में ऐसा होता है कि उस लोहे का काट हिलाने पर स्याही में मिल जाता For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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