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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/57 कपड़े को क्षति पहुँचाती हैं । लकड़ी की पाटी (पट्टी) पर लिखने के लिए ठीक हैं ।। राजस्थान में उपयोग आने वाली स्याही के बनाने की विधि अोझाजी ने इस प्रकार बताई है : ___'पक्की स्याही बनाने के लिए पीपल की लाख को जो अन्य वृक्षों की लाख से उत्तम समझी जाती है, पीस कर मिट्टी की हँडिया में रखे हुए जल में डालकर उसे आग पर चढ़ाते हैं । फिर उसमें सुहागा और लोध पीस कर डालते हैं। उबलते-उबलते जब लाख का रस पानी में यहाँ तक मिल जाता है कि कागज पर उससे गहरी लाल लकीर बनने लगती है तब उसे उतार कर छान लेते हैं। उसको अलता (अलक्तक) कहते हैं, फिर तिलों के तेल के दीपक के काजल को महीन कपड़े की पोटली में रखकर अलते में उसे फिराते जाते हैं जब तक कि उससे सुन्दर काले अक्षर बनने न लग जावें। फिर उसको दवात (मसीभाजन) में भर लेते हैं । राजपूताने के पुस्तक लेखक अब भी इसी तरह पक्की स्याही बनाते हैं ।" ओझाजी ने कच्ची स्याही के सम्बन्ध में लिखा है कि यह कज्जल, कत्था, बीजाबोर और गोंद को मिलाकर बनाई जाती है। परन्तु पन्नों पर जल गिरने से यह स्याही फैल जाती है और चौमासे में पन्ने चिपक जाते हैं । अतः ग्रन्थ लेखन के लिए अनुपयोगी है । आपने भोज-पत्र पर लिखने की स्याही के सम्बन्ध में लिखा है कि "बादाम के छिलकों के कोयलों को गोमूत्र में उबाल कर यह स्याही बनायी जाती थी। यही बात डॉ. राजबली पाण्डेय ने लिखी है : In Kashmir, for writing on birch-bark, ink was manufactured out of charcoal made from almonds and boiled in cow's urine. Ink so prepared was absolutely free from damage when MSS were periodically washed in water-tubes. 5 कुछ सावधानियाँ मूलतः कज्जल, बीजाबोल समान मात्रा में और इनसे दो गुनी मात्रा में गोंद को पानी में घोलकर नीम के घोंटे से ताम्र-पात्र में घुटाई करना ही कागज और कपड़े पर इसी बात को और स्पष्ट करते हुए मुनिजी ने बताया है कि 'जिस स्याही में लाख (लाक्षारस), कत्था, लोध पड़ा हो, वह कपड़ा कागज पर लिखने के काम की नहीं है। इससे कपड़े एवं कागज तम्बाकू के पत्ते जैसे हो जाते हैं। -भारतीय जैन श्रमण सस्कृति अने लेखन कला, पृ० ४२ । मुनि पुण्यविजयजी ने काली स्याही सम्बन्धी खास सूचनाओं में ये बातें बताई है कज्जलमत्र तिलतैलतः संजात ग्राह्यम । २, गुन्दोऽत्र निम्बसत्कः खदिरसत्को वबब्रसत्को वा ग्राह्यः । धवसत्कस्तु सर्वथा त्याज्य: मषी विनाशको ह्ययम् (धी का गोंद नहीं डालना चाहिए)। भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 1551 ___ वही, पृ. 1551 4. व्हलर ने सूचना दी हे (काश्मीर रिपोर्ट,30) कि गफ पेपर्स आदि (18F) में राजेन्द्रलाल भित्र ने टिप्पणियों में स्याही बनाने के भारतीय नुस्खे दिये है। -पृ. 146, पाद टिप्पणी, पृ. 537 5. Pandey, R. B-Indian Palaeography, P, 85, 6. थी गोपाल नारायण बहुरा की टिप्पणियां । For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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