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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपि-ग्रन्थ रचना-प्रक्रिय 23 यही बातें 'शार्ङ्गधर पद्धति' में भी बताई गई हैं । 'पत्र कौमुदी' में तो राजलेखक के गुण की लम्बी सूची दी गई है, इसके अनुसार लेखक को ब्राह्मण होना चाहिये । 1 जो मन्त्ररणाभिज्ञ हो, राजनीति- विशारद हो, नाना लिपियों का ज्ञाता हो, मेधावी हो, नाना भाषा का ज्ञाता हो, नीतिशास्त्र- कोविद हो, सन्धि विग्रह के भेद को जानता हो, राजकार्य में विलक्षण हो, राजा के हितान्वेषण में प्रवृत्त रहने वाला हो, कार्य और कार्य का विचार कर सकता हो, सत्यवादी हो, जितेन्द्रिय हो, धर्मज्ञ हो और राजधर्म-विद् हो, वही लेखक हो सकता था । स्पष्ट है कि लेखक का प्रदर्श बहुत ऊंचा रखा गया है । उस काल में लेखक को पाण्डुलिपि लेखक ही मानना होगा, क्योंकि तब मुद्रण यन्त्र नहीं थे, अतः लेखक जो रचना प्रस्तुत करता था वह पाण्डुलिपि (मैन्युस्क्रिप्ट) ही होती थी । उस मूल पाण्डुलिपि से अन्य लिपिकार प्रतियाँ प्रस्तुत करते थे और जिन्हें श्रावश्यकता होती थी उन्हें देते थे । ब्राह्मणों को, मठों और विहारों को ऐसा ग्रन्थ-प्रदान करने का बहुत माहात्म्य माना गया है । ऊपर के श्लोकों में लेखक के जिन गुणों का उल्लेख किया गया है, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है 'सर्व देशाक्षराभिज्ञ :- समस्त देशों के अक्षरों का ज्ञान लेखक को अवश्य होना चाहिये । साथ ही 'सर्वशास्त्र समालोकी' - समस्त शास्त्रों में समान गति लेखक की होनी चाहिये । एक पाण्डुलिपिविद् में आज भी ये दो गुण किसी न किसी मात्रा में होने ही चाहिये । यों पाण्डुलिपि विज्ञान विद् विविध लिपिमालाओं से और ज्ञान-विज्ञान कोशों से भी आज अपना काम चला सकता है, फिर भी उसके ज्ञान की परिधि विस्तृत अवश्य होनो चाहिए और उसके लिए सन्दर्भ-ग्रन्थों का ज्ञान तो अनिवार्य ही माना जा सकता है । ऊपर उद्धृत पौराणिक श्लोकों में जिस लेखक की गुणावली प्रस्तुत की गई है, वह वस्तुतः राज- लेखक है और उसका स्थान और महत्त्व लिखिया या लिपिकार के जैसा माना जा सकता है । हिन्दी में लेखक मूल रचनाकार को भी कहते हैं और लिखिया या लिपिकार को भी विशेषार्थक रूप में कहते हैं । लिपिकार का महत्त्व विश्व में भी कम नहीं रहा । रोमन साम्राज्य के बिखर जाने पर साम्राज्य की ग्रन्थ सम्पत्ति कुछ तो विद्वानां ने अपने अधिकार में कर ली, और कुछ पादरियां (मोंक्स) ने । इस युग में प्रत्येक धर्म - बिहार (मोनस्ट्री ) में एक अलग कक्ष पाण्डुलिपि कक्ष 'स्क्रिप्टोरियम' (Scriptor um) ही होता था । इस कक्ष में पादरी प्राचीन ग्रन्थां की हस्तप्रतियाँ या पाण्डुलिपियाँ स्वयं अपने हाथों से बड़ी सावधानी से तैयार किया करते थे । पाण्डुलिपि-लेखन को उन्होंने उच्चकोटि की कला से युक्त कर दिया था । 1. इस सम्बन्ध में डॉ० राजबली पाण्डेय ने यह मत व्यक्त किया है: “There is no doubt that the invention of alphabet required some knowledge of linguistics and phonetics and as such it could be under taken only by experts ed cated and cultured. That is why, for a very long time, the art of writing remained a special preserve of literary and priestly experts, mainly belonging to the Brahman class." -Panday, R. B. Indian Palaeography, p. 83. Alphabet या अक्षरावली या वर्णमाला जव बनी तब ब्राह्मण वर्ण का अस्तित्व था भी, यह अनुसन्धान का विषय है, पर ब्राह्मण धर्म-विधाता थे और वर्णमाला देव भाषा की थी ---अतः उनका उस पर अधिकार हो अवश्य गया । For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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