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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 234/पाण्डुलिपि-विज्ञान प्रत्येक पत्र इतना बड़ा होना चाहिये कि पूरा छंद लिखने के बाद उसमें आवश्यक टिप्पणियाँ देने के लिए स्थान रहे। इन प्रतिलेखों को सावधानी से उम ग्रन्थ-मूल से फिर मिला लेना चाहिए । पाठ-तुलना इसके उपरांत प्रत्येक छंद की समस्त प्रतियों के रूपों से तुलना की जानी चाहिए। इसमें ये बातें देखनी होंगी। (क) इस छंद के चरण सभी प्रतियों में एक से हैं अर्थात् यदि एक में पूरा छंद चार में चरणों है तो शेष सभी में भी वह चार चरण वाला ही है। अथवा एक चरण में संख्या कुछ, दूसरे में कुछ आदि । (ख) यदि किसी-किसी प्रति में कम चरण हैं तो किस प्रति में कौनसा चरण नहीं है। (ग) यदि किसी में अधिक चरण है तो कौनसा चरण अधिक है। (घ) फिर क्रमश: प्रत्येक चरण की तुलना क्या चरण के सभी शब्द प्रत्येक प्रति में समान हैं अथवा शब्दों में क्रमभेद है ? किस प्रति में किस चरण में कहाँ-कहाँ वर्तनी-भेद है ? किस-किस प्रति में इस चरण में कहाँ-कहाँ अलग-अलग शब्द हैं ? जैसे बीसलदेव की एक प्रति में 102 छंद का 637 चरण है-"ऊँचा तो धरि-धार वार" । यह चरण एक अन्य प्रति में है-- ___'धरि धरि तोरण मंगल ध्यारि'। इसी प्रकार चरण प्रति चरण, शब्द प्रति शब्द तुलना करके प्रत्येक शब्द के पाठों के अन्तरों की सूची प्रस्तुत करनी चाहिए । प्रत्येक परिवर्तित चरण की सूची, प्रत्येक लोप की सूची, प्रत्येक अधिक चरण (आगम) की सूची बनायी जानी चाहिए। साथ ही प्रत्येक प्रति चरण की छन्द-शास्त्रीय संगति भी देखी जानी चाहिए। इसके अनन्तर उक्त आधारों पर तीन 'सम्बन्धों' की दृष्टि से तुलना करनी होगी-- प्रतिलिपि सम्बन्ध से, प्रक्षेप सम्बन्ध से, पाठान्तर सम्बन्ध से । प्रामाणिक पाठ के निर्धारण में प्रतियों के प्रतिलिपि सम्बन्ध की महत्ता स्वयं सिद्ध है, क्योंकि इसीसे हमें उन सीढ़ियों का पता लग सकता है जिनके आधार पर मूल प्रामाणिक पाठ का अनुसन्धान किया जा सकता है। प्रतिलिपि सम्बन्धों की तुलना से ही हमें विदित होता है कि किस प्रति की पूर्वज कौनसी प्रति है। इस प्रकार ममस्त प्रतिलिपित ग्रन्थों का एक वंश-वृक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है। वंश-वृक्ष बनाने के लिए समस्त प्रतियों के पाठों का गहन अध्ययन अपेक्षित होता है तभी हम उन प्रतियों के पूर्वजों की कल्पना भी कर सकते हैं जो हमें शोध में प्राप्त हुई हैं। ऐसे कल्पित पूर्वज को वंश-वृक्ष में (X) गुणन के चिह्न से बताया जा है। इससे प्रतियों के परस्पर सम्बन्ध ही नहीं विदित होते वरन् प्रामाणिकता की दृष्टि से महत्त्व भी स्पष्ट हो जाता है । इसी प्रकार प्रक्षेपों की तुलना की जा सकती है। इनके भी परस्पर सम्बन्धों का वंश-वृक्ष दिया जा सकता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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