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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 168/पाण्डुलिपि-विज्ञान के लिए सिलाई के प्रत्येक छेद पर धागा पिरोने से पूर्व कागजों, गत्तों या चमड़ों का एक गोल आकार का अंश काटकर लगाते थे। ऐसा दोनों ओर भी किया जाता था और एक अोर भी किया जाता था । इसी को 'नथि' कहते हैं । ज्ञातव्य है कि जिन ग्रन्थों में लिपिकार की (या जिनके लिए वह तैयार किया गया हैउनकी) किसी प्रकार की धर्मभावना निहित होती थी तो चमड़े का उपयोग कभी नहीं किया जाता था। ऐसे ग्रन्थों की सिलाई के सम्बन्ध में दो बातें हैं : (क) पहले सिलाई करके फिर ग्रन्थ लेखन करना, (ख) पहले लिखकर फिर सिलाई करना । दूसरे के सम्बन्ध में एक बात और है । मान लीजिए कभी-कभी प्रारम्भ के 10 बड़े पन्नों पर रचना लिख ली गई। तत्पश्चात् और अधिक रचनाओं के लिखने का विचार हुआ और उनको भी लिखा गया । अब सिलाई में प्रारम्भ के 10 बड़े पन्ने दो भागों में विभक्त होंगे। प्रथम 5 का अंश आदि में रहेगा और शेषांश सिलाई के मध्य भाग के पश्चात् । अतः यदि किसी ग्रन्थ के आदि भाग में कोई रचना अपूर्ण हो, और बाद में उसी ग्रन्थ में उसकी पूर्ति इस रूप में मिल जाये तो प्रक्षिप्त नहीं मानना चाहिए। 3-आदि और अन्त के भाग में (प्रायः विषम संख्या के-5, 7, 9, 11) पन्ने अति रिक्त लगा दिये जाते थे । इसके ये कारण थे :(क) मजबूती के लिए प्रादि और अन्त में कुछ कोरे पन्ने रहने से लिखित पन्ने सुरक्षित रहते हैं। (ख) यदि रचना पूरी न लिखी जा सकी हो तो सम्भावित छूटे हुए अंश को लिखने के लिए। (ग) लिपिकार, स्वामी, उद्देश्य आदि से सम्बन्धित बातें लिखने के लिए, उदाहरणार्थ :(अ) कभी-कभी कोई ग्रन्थ बेचा भी जाता था । अन्त के पन्नों में या कभी आदि के पन्नों में भी उसका सन्दर्भ रहता था। गवाहों के भी नाम दिये जाते थे । बेचने की कीमत, मिति और संवत् का उल्लेख होता था । . (ब) यदि भेंटस्वरूप दिया गया, तो अवसर का, स्थान का, कारण का उल्लेख रहता था। इन व्यवहारों को सूचित करने के लिए भी कुछ पन्ने कोरे छोड़े जाते थे। इन छूटे हुए या अतिरिक्त कोरे पन्नों के सम्बन्ध में ये बातें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं :(क) यदि कोई रचना अधूरी रह गई, तो प्रायः उसकी पूर्ति प्रारम्भ के पन्नों से की जाती थी। ऐसा करने में कभी-कभी आदि के भी तीन-चार या कम-बेशी पन्ने खाली रह जाते थे । हस्त-ग्रन्थों के विद्यार्थी और पाठक को इस पर विशेष ध्यान देना चाहिये। For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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