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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पाण्डुलिपियों के प्रकार / 167 (क) खुले पन्नों वाली पुस्तकों की तो सिलाई का प्रश्न नहीं उठता। पन्ने क्रमानुसार सजाकर किसी बस्ते में बाँधे जाते थे । पुस्तक के ऊपर-नीचे विशेषतः लकड़ी की और गौणतः पत्तों के उसके पन्नों से कुछ बड़ी आकार की पटरियाँ लगा दी जाती थीं । इससे पन्नों की सुरक्षा होती थी । इसको भगवे, पीले या लाल रंग के वस्त्र से लपेट कर रखते थे । यह वस्त्र दो प्रकार का होता था : 2. (1) बुगचा -- यह तीन प्रोर से सिला हुआ होता था, चौथे कोने में एक मजबूत डोरी भी लगी रहती थी । पटरियों सहित पुस्तक को इसमें रखकर डोरी से लपेट कर बांध दिया जाता था । (2) चौकोर वस्त्र - इस कपड़े से बाँध दिया जाता था । (ख) बीच में छेद वाली खुले पन्नों की पुस्तकें अपेक्षाकृत कम मिलती हैं । प्रतीत होता ताड़पत्र-ग्रन्थों की यह नकलें हैं । इस प्रकार की हस्तप्रति में प्रत्येक पन्ने के दोनों र ठीक बीच में एक ही आकार-प्रकार का फूल बना दिया जाता था । अनेक में केवल एक पैसे (पुराने ताँबे के पैसे) के बराबर रंगीन गोला बना रहता था । इन ग्रन्थों में पन्नों की लम्बाई-चौड़ाई सावधानीपूर्वक एकसी रखी जाती थी । सब ग्रन्थ लिखे जाने के बाद उसके पन्नों में छेद करके रेशमी या ऊन की डोरी उनमें पिरो दी जाती थी । इस प्रकार इन्हें बाँध कर रखा जाता था। ऐसे ग्रन्थ सामान्यतः दूसरों को देने के लिए न होकर धर्म के स्थान - विशेष अथवा परिवार या व्यक्तिविशेष के निजी संग्रह के लिए होते थे । इनके लिखने और रखने तथा प्रयुक्त करने में सावधानी और सतर्कता बरतनी पड़ती थी । व्यय भी अधिक होता था । यही कारण है कि ऐसे ग्रन्थ कम मिलते हैं । पोथो, पोथी, गुटका : पुराने समय के जितने भी ऐसे ग्रन्थ देखने में प्राये हैं (डॉ० हीरालाल माहेश्वरी ने बीस हजार के लगभग ग्रन्थ देखकर यह निष्कर्ष निकाला है कि वे सभी वीच से सिले हुए मिलते हैं । इनके दो रूप हैं : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1- एक जैसे आकार के पन्नों को लेकर, उन्हें बीच से मोड़कर बीच से सिलाई की जाती थी । पहले 100 पन्ने दूसरे 100 पन्ने तीसरे 100 पन्ने 2 - क्रमश: (चौड़ाई की ओर से) घटते हुए आकार के पन्ने लगाना । (1) ग्रन्थ के बड़ा होने के कारण या तथा ( 2 ) लम्बाई अधिक होने के कारण ऐसा किया जाता था । उदाहरणार्थ -- 1 फुट के 10 इंच (या 10 या 11") के 8 इंच के ऐसे ग्रन्थ अपेक्षाकृत कम मिलते हैं, किन्तु यह पद्धति वैज्ञानिक है । ऐसे एक ग्रन्थ का उपयोग डॉ० हीरालाल माहेश्वरी ने डी० लिट्० की थीसिस में किया है । (3) सिलाई मजबूत रेशमी या बहुधा सुत की बटी हुई डोरी से होती थी । गाँठ वाला अंश प्रायः इनके बीच में लिया जाता था । यदि ग्रन्थ बड़ा हुआ तो मजबूती For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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