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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपियों के प्रकार/ 145 ताड़पत्रों को उबालकर उन्हें शख या कौड़ी से रगड़ा या घोंटा जाता था जिससे वे चिकने हो जाते थे। फिर लोहे की कलम से उन पर कुरेदते हुए अक्षर लिखे जाते थे । तदन्तर उन पर स्याही लेप दी जाती थी जो कुरेदे हुए अक्षरों में भर जाती थी। यह तरीका दक्षिणी भारत में अधिक प्रचलित था । उत्तर भारत में प्रायः ताड़पत्रों पर स्याही से लेखनी द्वारा लिखा जाता था । संस्कृत में 'लिख्' धातु का अर्थ कुरेदना होता है । स्पष्ट है कि ताड़पत्रों पर पहले कुरेदकर लिखा जाता था । अतः लिखने का अर्थ हुआ-कुरेदना । अतः इस क्रिया का नाम लेखन या लिखना हुआ है । 'लिप्' धातु का अर्थ है-लीपना । ताड़पत्र पर अक्षर कुरेद कर उन पर 'स्याही लेपन' के कारण लिपि शब्द का प्रयोग भी चालू हुआ । जैसा कि ऊपर लिखा गया है, ताड़पत्रों की चौड़ाई प्रायः 3 इञ्च की होती है। ऐसा लगता है कि बाद में, जैसे बाँस से कागज बनाए जाते थे, वैसे ही तालपत्रों को भी भिगोकर या गलाकर उनकी लुगदी बना कर और बाद में कूट-पीटकर अधिक चौड़ाई के पत्रों का निर्माण किया जाने लगा । ऐसा पूर्वीय देशों में होता था। महाराजा जयपुर म्यूजियम में महाभारत के कुछ पर्व ऐसे ही पत्रों पर बंग लिपि में लिखे हुए हैं जिनका लिपि संवत् लक्ष्मण सेन वर्ष में है । इसी प्रकार मोटाई अधिक करने के लिए तीन या चार पत्रों को एक साथ सीकर उन पर लिखा जाता था । ऐसा करने से पुस्तक में अधिक स्थिरता आ जाती थी। ऐसे ग्रन्थ बर्मा या ब्रह्मा देश में अधिक पाए जाते हैं। ताड़पत्रों के लिए गर्म जलवायु हानिकारक है, इसीलिए अधिक मात्रा में लिखे जाने पर भी ताड़पत्रीय ग्रन्थ दक्षिण भारत में कम मिलते हैं । काश्मीर, नेपाल, गुजरात व राजस्थान आदि ठण्डे और सूखे प्रदेशों में अधिक संख्या में मिलते हैं। नेपाल की जलवायु को इन ग्रन्थों के लिए आदर्श बताया गया है। कई बार ऐसा देखा गया है कि यदि किसी ताड़पत्रीय प्रति के बीच में से कोई पत्र जीर्ण हो गया या त्रुटित हो गया है तो उसी आकार-प्रकार के कागज पर उस पत्र पर लिखित अंश की प्रतिलिपि करके बीच में रख दी गई है । परन्तु कालान्तर में आस-पास के ताड़पत्र तो बचे रह गये और वह कागज जीर्णशीर्ण हो गया। कभी-कभी सुरक्षा की दृष्टि से ताड़पत्रों के बीच-बीच में हल्के पतले कपड़े की परतें रखी गईं-परन्तु उसको भी पाड़पत्र खा गया, यही नहीं ताड़पत्रीय प्रति पर बाँधा हुआ कपड़ा भी विवर्ण और जीर्ण हो जाता है। इससे जात होता है कि कपड़े, कागज और ताड़पत्र का मेल नहीं बैठता । ताड़पत्र कागज और कपड़े पर विनाशकारी प्रभाव ही पड़ता है। इसीलिए प्रायः ताडपत्रीय प्रतियाँ वाली में न बाँध कर मुक्त रूप में ही रखी जाती हैं। ताडपत्र पर लिखित जो प्राचीनतम प्रतियाँ मिली हैं वे पाशुपत मत के आचार्य रामेश्वरध्वज कृत 'कुसुमाञ्जलिटीका' और 'प्रबोधसिद्धि' है, इनका लिपिकाल ईसा की प्रथम अथवा द्वितीय शताब्दी बताया जाता है। इसी प्रकार डॉ० लूडर्स ने अपने (Kieinene Sanskrit Texie Panti) में एक नाटक के बुटित अंश को छपवाया है जिसको ताड़पत्र पर दूसरी शताब्दी में लिखी प्रति का उल्लेख है । यह ताड़पत्र पर स्याही से लिखी प्रति है । जर्नल श्रॉफ दी एशियाटिक सोसाइटी, बंगाल की संख्या 66 के पृ. 218 1. अक्षर अमर रहें, पृ. 41 For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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