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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 144 / पाण्डुलिपि - विज्ञान पुस्तकें क्यों नहीं लिखते ?" तो उस प्रसिद्ध दार्शनिक ने उत्तर दिया- "मैं ज्ञान को मनुष्य सजीव हृदय से भेड़ों की निर्जीव खाल पर नहीं ले जाना चाहता हूँ ।" इससे विदित होता है कि वहाँ भेड़ों का चमड़ा लिखने के काम में लाया जाता था । आरम्भिक इस्लामी काल में चमड़े पर लिखने की प्रथा थी । कुरान की प्रतियाँ शुरू में अरबी में मृगचर्म पर ही लिखी जाती थीं । ग्यारहवीं शताब्दी तक इसका खूब च रहा । पैगम्बर और ख़ैबर के यहूदियों का सन्धिपत्र और किसरा के नाम पैगम्बर का पत्र भी चमड़े पर ही लिखे गए थे । मिस्र में किर्ता (छत) में बाँस के डण्ठलों से कागज बनाया जाता था और इसी पर लिख कर खलीफा की आज्ञाएँ संसार-भर में भेजी जाती थीं । कुरान में भी करातीस कागज बनाने का उल्लेख मिलता है (सूर : 6, 96 ) । मिस्र में बने इस बांस के कागज में बछड़े की चमड़ी की झिल्ली लगाई जाती थी, इस विधि से बने कागज पर लिखे हुए अक्षर सहज में मिटाये नहीं जा सकते थे । ईरान में भी चमड़े पर ग्रन्थ लिखे जाते थे । इस चमड़े को अंग्रेजी में 'पार्चमेण्ट' कहते थे । पलवी भाषा में खाल का वाचक 'पुस्त' शब्द है । ईरानियों के सम्पर्क से ही यह शब्द धीरे-धीरे भारत में या गया और यहाँ की भाषा में व्याप्त हो गया । परन्तु ईसा की पाँचवीं शताब्दी से पहले इसका प्रयोग इसका भारतीय भाषा में नहीं पाया जाता । पाणिनि, पतञ्जलि, कालीदास और अश्वघोष की कृतियों में 'पुस्तक' शब्द नहीं पाया जाता । वैदिक साहित्य में भी 'पुस्तक' का कहीं पता ही नहीं चलता । अमरकोष में भी यह शब्द नहीं श्रता । हाँ, बाद के कोषों में 'पुस्त' शब्द लेप्यादि शिल्प कर्म का वाचक बताया गया है । 'पुस्तं शोभाकरं कर्म' - हलायुध कोष । मृच्छकटिक में पुस्तक शब्द का प्राकृत रूप 'पोत्थम या पोथा' मिलता है । इसी से पोथी शब्द भी बना है । बागभट्ट ने हर्षचरित और कादम्बरी, दोनों ही रचनात्रों में पुस्तक शब्द का प्रयोग किया गया है । कादम्बरी में चण्डिका देवी के मन्दिर के तमिल देशवासी पुजारी के वर्णन में लिखा है - "घूमरक्तालक्तकाक्षरतालपत्रकुहकतन्त्रमन्त्रपुस्तिका संग्राहिणा" श्रर्थात् उस पुजारी के पास कज्जल और लाल अलक्तक में बनी स्याही से तालपत्र पर लिखी तन्त्रमन्त्र की पुस्तकों का संग्रह था । इससे विदित होता है कि उस समय तक तालपत्रों पर रंगबिरंगी स्याहियों से लिखने की प्रथा भी चल चुकी थी। इसी पुजारी के वर्णन में कपड़े पर लिखित दुर्गा स्त्रोत का भी उल्लेख है। हरे पत्तों के रस और कोयले से बनी स्याही को सीपी में रखने का भी रिवाज उस समय था (हरित - पत्र - रसांगारमषीम लिनशम्बूक वाहिना) । ताड़पत्रीय ग्रन्थ भारत में प्राचीन काल की अधिकतर हस्तलिपियाँ ताड़पत्रों पर ही मिलती हैं । ताड़ या ताल वृक्ष दो प्रकार के होते हैं, एक खरताड़ और दूसरा श्रीताड़ । गुजरात, सिंध और राजस्थान में कहीं कहीं खरताड़ के वृक्ष हैं। इनके पत्ते मोटे और कम लम्बेचौड़े होते हैं । ये सूखकर तड़कने भी लग जाते हैं और कच्चे तोड़ लेने पर जल्दी ही सड़ या गल जाते हैं । इसलिए उनका उपयोग पोथी लिखने में नहीं किया जाता । श्रीताड़ के पेड़ दक्षिण में मद्रास और पूर्व में ब्रह्मा आदि देशों में उगते हैं । इन पेड़ों के पत्ते अधिक लम्बे, लचीले और कोमल हैं। ये पत्ते 37 इंच तक लम्बे होते हैं । कभी-कभी इससे भी अधिक परन्तु इनकी चौड़ाई 3 इंच या इसके लगभग ही होती है । For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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