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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञदत्तिक 79 अञपुरिससारत्त दुज्जानो ... अत्रयोगेन अञथाचरियकेन, म. नि. भासितं सुस्सूसन्ति, दी. नि. 3.38; ग. (विप. निपा. के रूप 2.164; दी. नि. 1.166; पाठा. अञत्राचरियकेन; - धम्म में), अन्यथा, इससे विपरीत - अञदत्थु समणयेव गोतम त्रि., भिन्न प्रकृति या स्वभाव वाला - म्मो पु., प्र. वि., ए. ओकासं याचन्ति अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय, म. नि. व. - कोलियानं लम्बचूळका भटा, अञ्जथाधम्मोहमस्मीति, 1.238; न सोभति ... अज्ञदत्थु गरहं लभति, ध. प. अट्ठ. स. नि. 2(2).321; - भाव पु., [अन्यथाभाव], रूपान्तरण, 1.218; -- जय पु., पूर्ण विजय, निश्चित विजय - निय्यन्ति स्वरूप-परिवर्तन, विपरिणमन, दुसरे रूप में बदलाव, पांच धीरा लोकम्हा, अञदत्थुजयं जयं, स. नि. 3.6; - दस त्रि., प्रकार के विपर्यासों में से एक - वो प्र. वि., ए. व. - सब लोगों को तुरन्त देख लेने वाला, प्रत्येक वस्तु को विपल्लासो अञ्जथाभावो व्यत्तयो च विपरिययो विपरियासो देखने वाला, पूर्ण द्रष्टा - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - ..., अभि. प. 776; - वं द्वि. वि., ए. व. - इत्थभावजथाभावं अहमस्मि ब्रह्मा महाब्रह्मा ... अञदत्थदसो वसवत्ती इस्सरो संसारं नातिवत्तति, इतिकु. 77; इत्थभावञ्जथाभावं, अविज्जायेव कत्ता, दी. नि. 1.16; सदेवमनुस्साय तथागतो अभिभू अनभिभूतो सा गति, सु. नि. 734; स. उ. प. में द्रष्ट. पसादञ्जथाभाव अञदत्थुदसो वसवत्ती, अ. नि. 1(2).28; इतिवु. 85; के अन्त; - भावी त्रि., [अन्यथाभावी], रूपान्तरण को अञ्जदत्थूति एकसत्थे निपातो ... सब्बं तं हत्थतले आमलक प्राप्त, विपर्यस्त, दूसरे स्वरूप में विपरिवर्तित, दूसरी तरह विय पस्सतीति दस्सो, इतिवु. अट्ठ. 321; तुल. रामायण से बदल जाने वाला - चक्खं भिक्खवे, अनिच्च विपरिणामि 7.35; - हर त्रि., बिना दिये हुए केवल लेने ही वाला, अञ्जथाभावी, स. नि. 2(1).218; अअथाभावी भवसत्तो लोको, पूर्णतः हरण करने वाला - रो पु०, प्र. वि., ए. व. - भवमेवाभिनन्दति, स. नि. 2(2).21; उदा. 105; स. उ. प. अज्ञदत्थहरो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो. दी. नि. में द्रष्ट. अनाथाभावी; - सञी त्रि., [अन्यथासङ्घी], 3.141; - रा ब. व. - अञदत्थहरा सन्ता, ते वे राज पिया विपरीत-रूप में विचार या दृष्टिकोण रखने वाला, विपरीत- होन्ति, जा. अट्ठ. 6.208. मतवादी, अन्यमतवादी - चिनो पु.. प्र. वि., ब. व. - अञदा निपा., [अन्यदा, अ. मा. अण्णया], शा. अ. किसी अअथासञिनोपि हेत्थ, चुन्द, सन्त्येके सत्ता, दी. नि. 3.103. दूसरे समय में, प्रयोगगत अर्थ क. पूर्वकाल में, प्राचीन अञदत्तिक त्रि., [अन्यदत्तक], किसी अन्य के द्वारा प्रदत्त, समय में- न हि मे अञदा ताय नत्थिपूवा नाम पक्कपुब्बाति, दूसरे के द्वारा दिया हुआ - कं नपुं., प्र./द्वि. वि., ए. व. ध. प. अट्ठ. 2.354; उदरवातो मे समुट्टितो ति; अञदापि - पटिसवानरहितो पच्चयं अअदत्तिक, सद्धम्मो. 394. समुद्वितपुब्बो, भन्ते ति, ध. प. अट्ठ. 2.357; ख. एक बार अञदत्थ पु., [अन्यार्थ], दूसरा प्रयोजन, अन्य लक्ष्य, फिर, पुनः एक बार - यदा अञदापि एवरूपो पज्हो दूसरा लाभ - एतम्पि दिस्वा विरमे कथोज्ज, न आगच्छेय्य, स. नि. 2(2).278; पाठा. अञथापि, हञदत्थत्थिपसंसलामा, सु. नि. 834. अदिद्विक त्रि., ब. स. [अन्यदृष्टिक], बुद्धधर्म से भिन्न अञदत्थिक त्रि., [अन्यार्थिक], किसी अन्य के लिये धर्म में श्रद्धा रखने वाला - केन पु., तृ. वि., ए. व. - तया निर्धारित, किसी दूसरों को दी जानी वाली - केन पु., तृ. अदिद्विकेन अञ्जखन्तिकेन अरुचिकेन अञ्जयोगेन वि., ए. व. - भिक्खुनियो अञदत्थिकेन परिक्खारेन ... ..., दी. नि. 1.166; म. नि. 2.164. अझं चेतापेय्य, निस्सग्गियं पाचित्तियन्ति, पाचि. 340. अञपदत्थ पु., ब. स. [अन्यपदार्थ], ब. स. के व्याख्यान् अञदत्थु/अञदत्थु निपा., [अन्यमस्तु, आस्तां तावत्, के सन्दर्भ में प्रयुक्त एक पारिभाषिक शब्द, ऐसा समास, शा. अ. रहने भी दो, प्रयोगगत अर्थ - क. (नियमतः जिसमें समास से बाहर के अथवा अन्य पदों के अर्थ 'एव' एवं 'व' के साथ ही प्रयुक्त), केवल, पूर्णरूप से, प्रधान रहते हैं - त्थेसु सप्त. वि., ब. व. - अञपदत्थेसु निश्चित रूप से - अञदत्थु तु तगघेकसे ससक्कं चाद्धा बहुब्बीहि, क. व्या. 330; मो. व्या. 2.188-189; 3.86; तुल. कामं जातुचे हवे, अभि. प. 1140; अञदत्थु मम व मजे कातन्त्र 2.5; - पधान त्रि., [अन्यपदार्थप्रधान], ब. स., अनुजग्घन्ता, न मं कोचि आसनेनपि निमन्तेसि, दी. नि. जिसमें अन्य पदों के अर्थों की प्रधानता रहती है, रू. सि. 337. 1.79; ख. ('एव' के प्रयोग के बिना ही वाक्यों में प्रायः 'खो' अञपुरिससारत्त त्रि., अन्य पुरुष के प्रति आकृष्ट - त्ता के तात्पर्य में प्रयुक्त), कम से कम, निश्चित रूप से - पु., प्र. वि., ब. व. - कुद्धा वा अञ्जपुरिससारत्ता वा हुत्वा अञदत्थु खो दानिमे अतिथिया परिब्बाजका भगवतो सब्बमेतं हननादि करेय्यु, जा. अट्ठ. 5.447. For Private and Personal Use Only
SR No.020528
Book TitlePali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Panth and Others
PublisherNav Nalanda Mahavihar
Publication Year2007
Total Pages761
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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