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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गजीवों के मार्ग तिनमें रुचि करे हैं, वे मार्ग महादोष के भरे हैं जिन में विषयकषाय की बाहल्यता है। जिनशासन से और कोई दुःख के छुड़ायवे का मार्ग नहीं इसलिये हे विभीषण तुम अानन्द चित्त होयकर जिनेश्वर देव का अर्चन करो, इसभांति धनदत्त का जीव मनुष्य से देव, देवसे मनुष्य होयकर नवमें भव रामचन्द्र भए, उसकी विगत पहिले भव धनदत्त १ दूजे भव पहले स्वर्ग देवर तीजे भव पद्मरुचि सेठ ३ चौथमा दुजे स्वर्ग देव ४ पांच में भव नयनानन्दराजा ५ छठे भव चौथे स्वर्ग देव ६ सातमें भव श्री चन्द्र राजा ७ अाठमें भव पांच में स्वर्ग इन्द्र - नवमें भव रामचन्द्र आगे मोक्ष यहतो रामके भव कहे हैं अवहेलंकेश्वर वसदत्तादिक का वृतांत सन कम्र्मों की विचित्रगति के योगकरमणालकण्ड नामानगर वहां राजा विजयसेन राणी रत्नचुला उसके वज्रकंच नामापुत्र उसके हेमवती राणी उसके शंभ नामापुत्र पृथियो में प्रसिद्ध सो यह श्रीकांत का जीव रावण होनहार सो पृथिवी में प्रसिद्ध और वसुदत्त का जीव राजा वा पुरोहित उसका नाम श्रीमति सो लक्ष्मण होनहार, महा जिनधर्मी सम्यकदृष्टि उसके स्त्री सरखतो उसके वेदवती नामा पुत्री भई, सोगावती का जीव सीता होनहार गुणवती के भव से सम्यक्त बिना अनेक तियवयोनिविषेभमणकर साधुओंकी निन्दाके दोषकर गंगाके तट मरकर हथिनीभईएकदिनाच में फंसी पराधीनहोयगयाहै शरीर जिसका नेत्र तिरमिराट और मन्द मन्द सांस लेयसो एकतरंगवेगनामा विद्याधर महा दयावान उसने हथिनीके कानमें नमोकार मंत्र दिया सो नमोकार मंत्रके प्रभावकर मंद || कषाय भई और विद्याधरने व्रतभी दिये सो जिनधर्म के प्रसादसे श्रीभूति पुरोहितके देववती पुत्री भई एक दिन मुनि श्राहारको आए सो यह हंसने लगी तब पिताने निवारी सो यह शांतचित्त होय श्राविका | For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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