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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ପଦ୍ମ 120211 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में संघ के अनुग्रह में तत्पर बाल के अग्रभाग के कोटिवें भाग भी नहीं परिग्रह जिस के स्नान का त्यागी दिगंबर संसार के प्रबन्ध से रहित, ग्राम के बनमें एक रात्रि और नगर के बनमें पांच रात्रि रहन हारा गिरि गुफा गिरिशिखर नदी के पुलिन उद्यान इत्यादि प्रशस्त स्थान में निवास करणारा कायोत्सर्ग का धारक देह से भी निर्ममत्व निश्चल मौनी पंडित महातपस्वी इत्यादि गुणोंकर पूर्ण कर्म पिंजर को जर्जरा कर काल पाय श्रीचन्द्रमुनि रामचन्द्र का जीव पांच में स्वर्ग इन्द्र भया, वहां लक्ष्मी कीर्ति कांति प्रताप का धारक देवों का चूड़ामणि तीन लोक में प्रसिद्ध परम ऋद्धि कर युक्त महा सुख भोगता भया नन्दनादिक वनमें सौधर्मादिक इन्द्र इसकी संपदाकोदेख रहे इसके अवलोकन की सब के बांधा रहे महा सुन्दर विमान मणि हेममई मोतियों की झालरियों कर मंडित उस में बैठा विहार करे दिव्य स्त्रियों के नेत्रों को उत्सवरूप महासुख से कालव्यतीत करता भया, श्रीचन्द्र का जीव बोंद्र उसकी महिमा, हे विभीषण वचन कर न कही जाय, केवल ज्ञानगभ्य है यह जिनशासन मोलिक परमरत्न उपमा रहित त्रैलोक्य में प्रकट है तथापि मढ़ न जाने श्रीजिनेन्द्र मुनीन्द्र और जिनधर्म इनकी महिमा जानकर भी मूर्ख मिथ्या अभिमान कर गर्वित भए धर्म से परांमुख रहें जो ज्ञानी यह लोक के सुखमें अनुरागी भया है सो बालक समान अविवेकी है जैसे बालक बिना समझे अभयका भक्षणकरें हैं विषपान करे है तैसे मूढ अयोग्य का आचरण करें है जे विषयके अनुरागी हैं सो अपना बुरा करे हैं, जीवों कर्म की विचित्रता है इसलिये सवही ज्ञान के अधिकारी नहीं कैयक महाभाग्य ज्ञानको पावे हैं और कैयकज्ञानकोपा वस्तुकी वांछाकर अज्ञान दशाको नापहोय हैं और कैयक महानिन्द्य जो यह संसारी For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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