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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - और भवनवासियों से कल्पवासीसुखी औरकल्पवासीयोंसे नवग्रीवके सुखीनवग्रीवसे नवअनुत्तरके मुखीऔर । पुरण तिनसे पंच पंचोत्तरकेसुखी पंचोत्तरसर्वार्थसिद्धसमानोगसुखी नहींसोसर्वार्थसिद्धकेहिमिन्द्रोंसे अनंतानंत ॥६६शा गुणा सुख सिद्धपद में है सुख की हद सिद्धपद का सुख है अनन्तदर्शन अनन्तज्ञान अनंत सुख अनंत वीर्य्य यह आत्मा का निज स्वरूप सिद्धों में प्रवते है और संसारी जीवों के दर्शनज्ञानमुख वीर्य कमों के क्षयोपशम से वाद्य वस्तु के निमित्त थकी विचित्रता लीये अल्परूप प्रवरते है, यह रूपादिक विषय सुख व्याधिरूप विकल्परूप मोह के कारण इन में सुख नहीं जैसे फोड़ा राध रुधिर कर भरा फूलै उसे सुख कहां तैसे विकल्परूप फोड़ा महा व्याकुलता रूप राधिका भरा जिनके है तिनके सख कहां सिद्ध भगवान् । गतागत रहित समस्तलोकके शिखर विराजे हैं तिनकेसुखसमानदूजासुसनहीं जिनके दर्शन ज्ञान लोकालोक को देखें जाने तिन समान सूर्य ता उदय अस्त को धरे है सकल प्रकाशक नहीं वह भगवान, सिद्ध परमेष्ठो हथेली में आंवले की न्याई सकल वस्तु को देखें जाने हैं छद्मस्थ पुरुष का ज्ञान उन । समान नहीं यद्यपि अवधिज्ञानो मनपर्य ज्ञानी मुनि अविभागी परमाणु पर्यंतदेखे हैं और जीवों के असंख्यात जन्म जाने हैं तथापि अपी पदार्थों को न जाने हैं और अनन्तकाल की न जाने, केवलाही । जाने, केवलज्ञान केक्लदर्शन कर यक्त उनसमान और नहीं सिद्धोंकेज्ञानअनन्त दर्शनअनंत और संसारी । जीवों के अल्पज्ञान अल्पदर्शन सिद्धों के अनन्तसुख अनन्तवीर्य और संमारियोंके अल्पसुख अल्पवीर्य । यह निश्चय जान सिद्धों के सुख की महिमा केवलज्ञानी हीजाने और चार ज्ञान के धारक भी पूर्ण न। | जाने यह सिद्ध पद अभव्यों को अप्राप्य है इसपद को निकट भव्य ही पावें अभव्य अनंत काल भी काय || For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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