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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर धारा समान हैं और विष मिश्रित अन्न समान हैं और सिद्धों के मन इन्दिी नहीं शरीर नहीं केवल ME स्वाभाविक अविनोशी उत्कृष्ट निरावाघ निरुपम सुखहै उसकी उपमा नहीं जैसे निद्रा रहित पुरुष को सोयवे कर क्या और निरोगोंको औषधिकर क्या तैसे सर्वज्ञवीतराग कृतार्थ सिद्ध भगवान तिनको इन्द्री। योंके विषयों कर क्यासूर्य दोपको चन्द्रादिककर क्या जे निर्भय जिनके शत्रु नहीं तिनके श्रायुधों कर क्या जे सब के अंतर्यामी सब को देखें जाने जिनके सकल अर्थ सिद्ध भये कछु करना नहीं बांका। किमी वस्तुकी नहीं वे सुखके सागर, इच्छा मनसे होयहै सो मन नहीं अात्म सुखमें तृप्त परम आनंद । स्वरूप क्षुधातृषादि वाधा रयित हैं तीर्थंकर देव जिस सुखकी इच्छाकरें उसकी महिमा कहालग कहिए अहिमिन्द्र नागेंद्र नरेन्द्र चक्रवादिक निरन्तर उसही पदका ध्यान करे हैं और लोकांतिक देव उसीसुख । के अभिलाषी हैं उसकी उपमा कहाँलग करें यद्यपि सिद्ध पदका सुख उपमा रहित केवली गम्यहै तथापि । प्रतिबोध के अर्थ तुमको सिद्धोंके सुखका कछु इक वर्णन करे हैं अतीत अनागत वर्तमान तीनकाल के तीर्थकर चक्रवर्त्यादिक सर्व उत्कृष्ट भूमि के मनुष्यों का सुख और तीन काल का भोग भूमि का सुख और इन्द्र अहमिन्द्र आदि समस्त देवों का सुख भूत भविष्यत वर्तमान काल का सकल एकत्र करिए और उसे मनन्त गुणा फलाइये सो सिद्धों के एक समयके सुख तुल्य नहीं काहेसे जो सिद्धोंकासुख निराकुल निर्मलअब्यावाघ अखंड अतीन्द्रियवि शीहै और देवमनुष्योंकासुखउपाधिसंयुक्तबाधासहितविकल्प रूप व्याकुलता कर भरा विनाशीक है और एकदृष्टांत और सुनो मनुष्यों से राजा सुखी राजावों से चक्रवर्ती | सुखी और चक्रवर्ती यों से वितरदेव सुखी और वितरोंसे ज्योतिशी देव सुखी उनसे भवनवासी अधिकसुखी । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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