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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पम | और हाथियों के मोती बिखर रहे हैं। वह युद्ध महा भयंकर होता भया जहा सामन्त अपना सिर । पुगगा 1१३४ देकरवरूप रत्न खरीदते भए जहां मूर्छित पर कोई घात नहीं करे और निर्बलपर घात करे समितों का है युद्ध जहां महा युद्धके करणहोर योधा जिनके जीवनकी श्राशा नहीं क्षोभ को प्राप्त भया समुद्र गाजे तैसा होय रहा है शब्द जहां सो वह संग्राम समरस कहिये समान रस होता भया । भावार्थ ॥ न वहमेना हटी न वह सेना हटी योधावोंमें न्यूनाधिकता परस्पर दृष्टि न पड़ी कैसे हैं योधा स्वामी विषे है परम भाक्त जिमकी और स्वामीने भाजविका दई थी उसके बंदले यह जीव दिया चाहे हैं.प्रचंड रणकोहे खाज जिनके सूर्य समान तेजको धरें संग्रामके धुरंधर होते भयोइतिएकादायवांपर्बपूर्ण, अथानन्तर गौतम स्वामी- कहे हैं हे श्रेणिक अब जो बृतांत भया सो सुनो अनंगलवण के तो सोरथी राजा यजजंध और मदनांकुश के राजा पृथु और लक्ष्मण के विराधित और राम के कृतातवक्र तब श्रीराम वज्रावर्त यमुन को' बदायकर वृतांतवक्र से कहते भये अब तुम शीघ ही शत्रुवों पर स्थ चालावो ढील न करो, तब वह कहता भया हे देव देखो यह घोडे नरवीरके बाणोंकर जरजरे होयरहे हैं इन में तेज नहीं मानोंनिद्रा को प्राप्त भये हैं यह तुरंग लोह की धाराकर घरती को रंगे हैं मानों अपना अनुराग प्रभुको दिखाये हैं और मेरी भुजा इसके बाणोंकर भेदी गई है वक्तर टूटगया है तब श्रीराम कहते भए मेरा। भी धनुष युद्ध कर्म रहित ऐसा होयगया है मानों चित्राम का धनुष है और यह मूसल भी कार्यरहित होय गया है और दुनिवार जे. शत्ररूप गजराज तिनको अंकुश समान यह हल सो भी शिथिलता को मजे हैं शत्रुके पक्ष को भयंकर मेरे अमोघशस्त्रजिनकी सहस्र सहल यक्ष रक्षाकरें वे शिथिल होय गए हैं। -- - For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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