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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1291 लक्षमण क्रोधरहित भये, भ्रकुटी चढ रही थी सो शीतल बदन भये कन्या ग्रानन्दकी उपजोवनहारी तब पुराण राजा रत्नरथ अपने पुत्रों सहित मान तज नानाप्रकार की भेटले कर श्री राम लक्षमण के समीप आया राजादेश कालकी विधिको जाने है और देखा है अपना और इन का पुरुषार्थ जिसने तब नारद सबके बीच रत्नस्थकोकहते भये हे रत्नस्थ अब तेरी क्यावार्तात रत्नरथ है के रजरथ है वृथा मान करेथा मा नारायण बलदेवों से कहांमान और ताली बजाय रत्नरथके पुत्रों से हँसकरकहता भया हो रत्नरथके पुत्र हो यह वासुदेव जिनको तुम अपने घर में उद्धत चेष्टा रूप होय मनमें आयो सो ही कही अवपायन क्यों पड़ो हो तब वे कहते भए हे नारद तुम्हारा कोप भी गुणकरे जो तुम हमसे कोप कीया तो बड़े पुरुषों का सम्बन्ध भया, इनका सम्बन्ध दुर्लभ है इसभांति क्षणमात्र वार्ता कर सब नगर में गए श्रीराम को श्रीदामा परणाई रति समान है | रूप जिसका उसे पायकर रामानन्दमे रमते भए और मनोरमा लक्ष्मणको परणाई सो साक्षात् मनोरमा ही | है, इसभांति पुण्य के प्रभाव कर अद्भुत वस्तु की प्राप्ति होय है इसलिये भव्य जीव सूर्य से अधिक प्रकाश रूप | जो वीतराग का मार्ग उसेजानकर दया धर्म की आराधना करो ॥ इति त्राणवां पर्व पूर्ण भया॥ ___अथानन्तर और भी जे वीजयाकी दक्षिणश्रेणी में विद्याधर थे वे सब लक्ष्मणने युद्धकर जीते कैसा है युद्ध जहां नानाप्रकारके शस्त्रों के प्रहारकर और सेनाके संघट्टकर अन्धकार होयरहा है गौतम स्वामी कहे हैं हे श्रेणिक वे विद्याधर अत्यन्त दुस्सह महाविष घर समान थे सो सब राम लक्ष्मण के प्रतापकर मान रूप विषसेरहित होय गए. इसके सेवक भए तिनकी राजधानी देवों की पुरी समान तिनके नाम कैयक तुझं कहूं हूं रविप्रभ घनप्रभ कांचनप्रभ मेघप्रभ शिवमन्दिर गंधर्वगीत अमृतपुर लक्ष्मीघरप्रभ । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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