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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- - ॥८६२ -- पद्म समय नगरका स्वामी दिगविजय निमित्त देशांतर गया उसकी ललितानाम राणीमहलके झरोखा विष । पुराण तिष्ठे थी सो पापिनी इस दुगवारी विप्रको देख काम बाण करवेधी गई सो इसे महलमें बुलाया एक प्रासनपर रणी और यह बैठेथे उसही समय राजा दूरका चला अचानक पाया और इसे ही महल में देखा सो राणीने मायाचार कर कही जो यह बन्दीजनहै भित्तुकहै तथापि राजाने नमानीराजाके किंकर उसे पकडकर नृपको आज्ञासे आठो अंग दूर करवे के अर्थ नगरके बाहिर ले जाते थे सो कल्याणनामा साधू ने देख कही जो तू मुनिहाय तो तुझे छुडावें तब इसने मुनि होना कबूल किया तब किंकरों से। छूडाया सो मुनिहोय महातप कर स्वर्गमें ऋजु बिमानका स्वामी देव भया हे श्रेणिक धर्म से क्यान होय।। ___अथानन्तर मथुरामें राजा चन्द्रभद्र उसके राणी धरा उस के भाई सूर्य देव अग्निदेव यमुना देव । ओर पाठ पुत्र तिनके नाम श्रीमुख सुन्मुख मुमुख इन्द्रमुख प्रमुख उग्रमुख अर्कमुख परमुख और राजा चन्द्रभद्र के दूजी राणी कनक प्रभा उस के वह कुलन्धर नामा ब्राह्मण काजीव स्वर्ग विषे देव होय वहांसे चयकर अचल नाम पुत्र भया सो कलावान और गुणों कर पूर्ण सर्व लोकके मनका हरणहाग देव कुमार तुल्य क्रीडा विषे उद्यमी होता भया। ' अथानन्तर एक अंकनामा मनुष्य धर्मकी अनुमोदनाकर श्रावस्ती नगरी विषे एक कंपनाम पुरुष उसके अंगिका नामा स्त्री उसके अपनामा पुत्र भया सो अविनयी तव कंपते अपको घरसे निकास दिया सो महादुखी भूमिमें भ्रमण कर और अचलनामा कुमार पिताका अतिबल्लभ सो अचलकुमारकी | बड़ी माता धरा उसके तीन भाई और आठ पुत्र तिन्होंने एकांतमें अचलकें मारणेकामंत्र किया सो For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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