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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir पन्न ॥१३॥ है भागे लंकाकी कथा कहिये है सो सुन । महारिष नामा विद्याधर बड़ी संपदा कर पूर्ण लंकाका निकंटक राज करै सो एक दिन प्रमद नामा उद्यान में राजा राजलोक सहित क्रीड़ा को गये,वह उद्यान कमलों से पूर्ण सरोवरों से अधिक शोभाको धरे है और नाना प्रकार के रत्नों की प्रभावाले ऊंचे पर्वतों से महा रमणीक है और मुगन्धि पुष्पों से फूले हुवेहै जो वृक्षों के समूहसे मंडित और मिष्ट शब्दों के बोलनहारे पक्षियों के समूह से अति सुन्दर है, जहां रत्नों की राशि हैं और अति सघन पत्र पल्लवन कर मंडित लताओं (वेलों )के मंडप से छा रहाहै ऐसे बनमें राजा राज लोकों सहित नाना प्रकारकी क्रीड़ा कर रति के सागर में मग्न हुआ जैसे नंदन बनमें इंछ क्रीडा करै तैसे क्रीडा करी अथानन्तर सूर्य के अस्त भये पोछे कमल संकोच को प्राप्त भये उनमें भूमण को दबकर मूवा देख राजा के जी में चिन्ता उपजी उस राजा के मोह की मंदता होगई थी और भवसागर से पार होने की इच्छा उपजी थी राजा बिचारे है कि देखो मकरंद के रस में आसक्त यह मूढ़ भौंरा गन्ध से तृप्त न भया इस लिये मुवा तैसेमें स्त्रियोंके मुख रूप कमल को भूमण हुश्रा मरकर कुगति को प्राप्त होऊंगा जो यह एक नासिका इंद्रिय का लोभी नाश को प्राप्त भया तो मैं तो पंच इंद्रियों का लोभी हूँ मेरी क्या बात अथवा यह चौइंद्री जीव अज्ञानी भूलें तो भूले में ज्ञान संपन्न विषयों के बश क्यों हुअा शहतकी लपेटी खड्ग की धारा के चाटनेसे मुख कहां जीभ ही के खंड होय हे तेसे विषय हैं सेवन में सुख कहाँ अनन्त दुःखों का उपार्जनही होय है विषफल सुल्य विषय है उम से परांग मुख हैं तिनको मैं मन पथ काय से नमस्कार कर हँहाय यह बड़ा कष्ट है जो में पापी धने For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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