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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराना 1961 पद्म छुडीवो हे प्राणवल्लभ प्राणनाथ उठो हमसे हितकी बात करो हे देव बहुत सोवना क्या राज.वो को राजनीति विषे सावधान रहना सो आप राज्य काज विषे प्रवर्तों हे सुन्दर हे प्राण प्रिय हमारे अंग बिरह रूप अग्नि कर अत्यन्त जरे, सो स्नहरूप जलकर बुझावो हे स्नेहियों के प्यारे तुम्हाग यहबदन कमल औरही अवस्थाको प्राप्त भया है मो इमे देख हमारे ह्रदयके सौ टूक क्यों न हो जावें यह हमार, पापी हृदय वनकाहै दुःखकाभाजन जो तुम्हारीयह अवस्था जानकर विनस न जाय है यह हृदय महा निदई है हाय विधाता हम तेरा क्या बुराकिया जोतेने निर्दई होयकर हमारे सिरपर ऐसा दुःश्व डाग हे प्रीतम जब हम मान करती तब तुम उरसे लगाय हमारा मान दूर करते और वचन रूप अमृत हम को प्यावते महा प्रेम जनावते हमाग प्रेमरूप कोप उसके दूर करके अर्थ हमारे पायन पडते सोहमारा हृदय वशीभूत होय जाता अत्यन्त मनोहर क्रीडा करते, हे राजेश्वर हमसे प्रीतिकारी परम आनन्दकी करणहारी वे क्रीडा हमको याद आयें हैं सो हमारा हृदय अत्यन्त दाह को प्राप्त होय है इसलिये अब उठो हम तुम्हारे पायों पडे हैं नमस्कार करें हैं जो अपने प्रिय जन होंय तिनसे बहुत कोप न करिये प्रीति विपे कोप न सोहे हे श्रेणिक इस भांति रावण की राणी ये विलाप करती भई जिनका विलाप सुन कर कौन का हृदय द्रवी भूत न होय ॥ __अथान्तर श्रीराम लक्षमण भामण्डल सुग्रीवादिक सहित अति स्नेहके भरे विभीषण को उर से । लगाय प्रांसू डारते महाकरुणाबन्त वीर्य बन्धावने विषे प्रवीण ऐसे वचन कहते भए लोक वृतांतमें पंडित हे राजन बहुत रोयवे कर क्या अबविपाद तजो यह कर्मकी चेष्टा तुम कहां प्रत्यक्ष नहीं जानोंहो । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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