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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पुरा ८९ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिवारसहित और सखियाँसहित महाशोककी भरी रुदनकरती भई कैयक मोहकी भरी मूर्छाको प्राप्त भई सो चन्दन के जल कर छांटी कुमलाई कमलनी समान भासती भई कैयक पति के अंग से अत्यन्त लिपटकर परी अंजनगिरि सो लगी संध्या की श्रुतिको धरती भई कैयक मूर्छासे सचेत होय उरस्थल कूटती भई पति के समीप मानों मेघ के निकट विजुरी ही चमके है कैयक पति का बदन अपने अंग में लेय कर विह्वल होय को प्राप्त भई कोई यक विलापकरे हैं हाथ नाथ मैं तुम्हारे विरहसेप्रति कायर मुझे तजकर तुम कहां गए तुम्हारे जन दुःखसागर में डूबे हैं सो क्यों न देखो तुम महाबली महा सुन्दरी परम ज्योतिके धारक विभूति कर इन्द्र समान मानों भरत क्षेत्र के भूपति पुरुषोत्तम महाराजा के राजा मनोरम विद्याधरों के महेश्वर कौन अर्थ पृथिवीमें पौढ़े ष्ठो हे कांत करुणानिधे स्वजनवत्सल एक अमृत लमान बचन हमसे कहो, हे प्राणेश्वर प्राणबल्लभ हम अपराध रहित तुमसे अनुरक्त चित्त हमपर तुम क्यों कोप भए हमसे बोलो ही नहीं जैसे पहिले हास्य कथा करते तैसे क्यों न करो तुम्हारा मुखरूपी चन्द्र कांतिरूप चांदनी कर मनोहर प्रसन्नतारूप जैसे पूर्व हमे दिखावते थे तैसे हमें दिखावो और यह तुम्हारा बक्षस्थल स्त्रियों की क्रीड़ा का स्थानक महासुन्दर उसविषे चक्र की धाराने कैसे पगधरा और विद्रुम समान तुम्हारे ये लाल घर अब क्रीड़ारूप उत्तर के देने को क्यों न स्फुटायमान होयहैं अबतक बहुत देरलगाई क्रोध कबहूं न किया अब प्रसन्नहोवो, हम मान करती तो आप प्रसन्न करते मनावते इन्द्रजीत मेघवाहन स्वर्गलोक से चयकर तुम्हारे उपजे सो यहां भी स्वर्गलोक कैसे भोग भोगें अब दोनों बन्धन में हैं और कुम्भकर्ण बन्धनमें है सो महापुण्य धिकारी सुभट महागुणवन्त श्रीरामचन्द्र तिनसे प्रीतिकर भाईपुत्रको For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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