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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म चुराया ॥ १६२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिद्ध नाम कहाया तो क्या मिद्ध भया, हे कांते तू कहा कायरता की वार्ता करे रथनुपुर का राजा इन्द्र कहावता हो क्या इन्द्र भया वैसे हम नारायण नहीं इस भांनि रावण प्रतिनारायण ऐसे प्रबल वचन स्त्री को कह महा प्रतापी क्रीड़ाभवन में मन्दोदरी सहित गया जैसे इन्द्र इन्द्राणी सहित क्रीड गृहमें जाय मां के समयय सांझ फली. सूर्य अस्त समय किरण संकोचने लगा जैसे संयमी कपायों को संकोचे सूर्यासक्त होय अस्तको प्राप्त भया कमल मुद्रित भए चकवा चकवी वियोग के भय कर दीन वचन ते भए मानो सूर्य को बलावे हैं और सूर्यके अस्त होयवेकर ग्रह नक्षत्रोंकी सेना द्याकाश में विस्तरी मानों चन्द्रमाने पठाई रात्रि के समय रत्नद्वीपों का उद्योत भया दीपों की प्रभा कर लंका नगरी ऐसी शोभती भइ मानों सुमेरु की शिखाही है, कोई वल्लभा वल्लभ से मिलकर ऐसे कहती भई एक रात्रितो तुम सहित व्यतीत करगे फिर देखए क्या होय और कोई एक प्रिया नाना प्रकारके पुष्पों की सुगंधता के मकरन्द कर उन्मत्त भई स्वामी के अंग में मानो महा कोमल पुष्पों की वृष्टि ही पड़ी कोई नारी कमल तुल्य हैं चरण जिसके और कठिन हैं कुत्र जिसके महा सुन्दरशरीर की धरणहारी सुन्दरपति के समीप गई, और कोई सुन्दरी ग्राभूषणों को पहली ऐसी शोभती भई मानों स्वर्ण रत्नों का कृतार्थ करे है॥ भावार्थ - उस समान ज्योति रत्न स्वणों में नहीं । रात्रि समय विद्याकर विद्याधरी मन वांछित क्रीड़ा करते भए घर घर में भोग भूमिकी सी रचना होती भई महा सुन्दर गीत और बीए बांसुरियोंका शब्द तिन कलंका हर्षित भई मानो वचनालापही करे है और ताम्बुल सुगन्ध मूल्यादिक भोग और स्त्री यादि उपभोग सो भोगोपभोगोंकर लोग देवोंकी न्याई रमतेभए और कैएक उन्मत्तभई स्त्रियोंको नाना प्रकार For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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