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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प रूप खड्गकर दीप्त है अंग जिसका नियम रूप क्षत्रकर शोभित सम्यक दर्शनरूप बक्तर पहिरे शील पुराण | रूपवजा कर शोभित अनित्यादि वारह भावना अथवा में भावना आदि चारतेई चन्दन तिनर चर्चित ॥७६१ है अंग जिसका और ज्ञानरूप धनुषको धरे वशक्रिया है इंद्रियों का वल जिसने, शुभध्यान और प्रताप कर युक्त मर्यादा रूप अंकुशकर संयक्त निश्चलरूप हाथीपर चढ़ा जिनभक्तिकी है महाभक्ति जिसक दुर्गतिरूप कुनदी सो महा कुटिल परमरूप है वेग जिसका अतिदुःसह सो पंडितों कर तिरिय है, उस तिरकर सुखी होवो और हिमवान् सुमेरु पर्वत में जिनालय को पूजते संते मेरे सहित ढाई दाप मं विहार कर अष्टादश सहस्र स्त्रियों के हस्त कमल पल्लव उनकर लडाया संता समेरु पर्वत के वन विषे | क्रीडा कर, और गंगाकेतट पर क्रोडाकर ओर और भी मनवांछित प्रदेशों में रमणीक क्षेत्रों में हे नरेन्द्र | सुख से विहार कर, इस युद्ध कर कछ प्रयोजन नहीं प्रसन्न होवो मेरा वचन मान कैसा है मेरा वचन, । सर्वथा सुख का कारण है यह लोकापवाद मतकरावो अपयशरूपसमुद्रमें काहेको ड्यो हो यह अपवाद | विष तुल्य महानिन्ध परम अनर्थ का कारण भला नहीं दुर्जन लोक सहज ही परनिन्दा करें सो ऐसी बात सुनकर तो करेहीं करें. इसभांति के शुभ वचन कह यह महासती हाथ जोड़ पति का परम हित बांछित पतिके पायन पड़ी तव रावण मन्दोदरी को उठाय कर कहता भया तु निःकारण क्यों भय को प्राप्त भई हे सुन्दरबदनी मुझ से अधिक इस संसार में कोई नहीं. तू स्त्रीपर्याय के स्वभाव से बृथा काहे को भय करे है तैने कही जो यह बलदेव नारायण हैं सो नाम नारायण और नामवलदेव भया तो क्या, नामभएकार्य की सिद्धिनहीं, नाम नाहरभया तो क्या नाहरके पराक्रमभए नाहर होय कोई मनुष्य For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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