SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 744
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण . ... . ... .. . .. - पद्म मई महा विभूतिकर युक्त नाना प्रकारके वर्ण के वर्णकर शोभित महा विस्तीर्ण महा उतंग महा ध्वजाबों SUM से विराजित तिनमें रत्नमई तथा स्वर्णमई पंचवर्ण की प्रतिमा विराजे विद्याधरोंके स्थानों में अति मुन्दर जिनमंदिरोंके शिखर तिनसे शोभा होय रही है उस समय नानाप्रकारके रत्नमई उपवनादिसे शोभित जे जिनभवन उनसे यह जगत व्याप्तथा और इन्द्र के नगरसमान लंकाका अंतर बाहिर जिनेंद्र के मंदिरोंसे मनोग्य था सो रावणने विषश शोभा कराई और श्राप गवण अठारह हजार राणी वेई भई कमलोंके बन तिनको प्रफुल्लित कर्ता वर्षाके मेघसमानहै स्वरूप जिसका महा नागसमान भुजा जिसको पूर्ण मासीके चन्द्रमासमान बदन सुन्दर गुडहरके फूलसमान लाल होंठ विस्तीर्ण नेत्र स्त्रियोंका मन हरण हारा लक्ष्मणसमान श्यामसुन्दर दिव्यरूपका धरणहारा सो अपने मंदिरों में तथा सर्वत्र विष जिनमंदिर की शोभा कगवताभया कैसाहै रावणका घरलग रहे हैं लोगोंके नेत्र जहां और जिनमंदिरोंकी पंक्ति उस से मंडित नानाप्रकारके रत्नमई मंदिर मध्य उतंग श्रीशन्तिनाथका चैत्यालय जहां भगवान शंति नाथ जिनकी प्रतिमा विराजे जे भव्यजीवहैं वे सकललोक चरित्रको असार अशाश्वता जानकर धर्म विष बुद्धिधर जिनमंदिरोंकी महिमाकरो कैसे हैं जिनमंदिर जगतकर बन्दनीकहें और इन्द्रके मुकट के विष लगे जे रत्न तिनकी ज्योतिको अपने चरणोंके नखोंकी ज्योतिकर बढावनहारे हैं धनपावनका यही फल जो धर्म करिये सो गृहस्थका धर्म दान पूजारूप और यतिका धर्मशांत भावरूप इस जगतविषे यह जिनधर्म मनवांछित फलका देनहाराहै जैसे सूर्य के प्रकाशकर नेत्रों के धारक पदार्थों का अवलोकन करे है तैसे जिनधर्मके प्रकाशसे भव्यजीव निजभावका अवलोकन करे हैं ।। इतिसतसठवांपर्वसंपूर्णम् ।। For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy