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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - पराया १७३३॥ हाथ धर अघो मुख होय कछुएक चिन्ता रूप तिष्य अपने मनमें विचारे है जो शत्रु को युद्ध में जीतू हतो भ्रात पुत्रों की अकुशल दीखे है और जो कदाचित् वैरियों के कटक में मैं रति हावकर कुमारोंको ले आऊं तो इस शम्ता में न्यूनता है रतिहाव क्षत्रियों के योग्य नहीं क्याकरूं कैसै मुझे सुखहोय यह विचार करते रावण को यह बुद्धि उपजी जो में बहुरूपणी विद्यासाधू कैसी है बहुरूपणी जोकदाचित देव युद्धकर तो भी नजीती जाय, ऐसा विचार कर सर्वसेवकों को आज्ञा करी श्री शांतिनाथ के मन्दिरमें समीचीन तोरणादिकों से अति शोभा करो सो सर्व चैत्यालयों में विशेष पूजा करो सर्व भार पूजा प्रभावना का मन्दोदरी के सिरपर धरा गौतम गणधर कहे हैं हे श्रेणिक वह श्री मुनिसुव्रतनाथ बीसमां तीर्थकर का समय उस समय इस भरतक्षेत्र में सर्वठौर जिन मन्दिर थे यह पृथिवी जिनमन्दिरों से मण्डित थी चतुर विध संघकी विषेश प्रवृति राजाश्रेष्ठि ग्रामपति और प्रजाके लोग सकल जैनी थे सो महा रमणीक जिन मंदिर रचते जिनमंदिर जिनशासनके भक्त जो देव तिनसे शोभायमान वे देव धर्मकी रक्षामें प्रवीण शुभ कार्यके करणहारे उससमय पृथ्वी भब्यजीवोसे भरी ऐसी सोहती मानो स्वर्ग विमानहीं है ठौर २ ध्वजा और २प्रभावना और २ दान हेमगधाधिपति पर्वत पर्वतविषे गांव र वि नगर र विर्षे बन बन विषेषट्टन पट्टन विषे मंदिर मंदिर विप जिनमंदिरथे महा शोभाकर संयुक्त शरदके पूनोंकी चन्द्रमासमान उज्ज्वल गीतोंकी धनिसे मनोहर नानाप्रकारके वादित्रोंके शब्दकर मानों समुद्र गाजे हैं और तीनों सन्ध्या वंदना को लोग आ सो साधुवोंके अंगसे पूर्ण नानाप्रकारके वादित्रोंके शब्दकर मानों समूह कालके आश्चर्यकर संयुक्त नानाप्रकारके चित्रामको घरे अगर चंदनकाधूप और पुष्पोंकी सुगन्धताकर महासुगंध For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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