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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराश 11७२३॥ पन || राजदार श्राए सो भरत सबको युद्धका आदेश देय उद्यमी भया तबभामण्डल हनुमान अंगद भरतको नम स्कार कर कहतेभये हे देव लङ्का पुरी यहांसे दूरहै और बीच समुद्र है तब भरतने कही क्या करना तब उन्हों ने विशिल्या का वृत्तान्त कहा हे प्रभो राजा द्रोणमेघकी पुत्री विशिल्या उसके स्नानका उदक देवोशीघ्र ही कृपा करो जो हम लेजायें सूर्यका उदय भए लक्ष्मण का जीवना कठिन है तब भरत ने कही उस के स्नानका जल क्या उसीको लेजावो मुझे मुनिने कहीथी यह विशल्या लक्ष्मणकी स्त्री होयगी तब द्रोण मेघ के निकट एक निज मनुष्य उसी समय पठाया सो द्रोणमेघने लक्ष्मण के शक्ति लगी सुन अति कोप किया औइ युद्ध को उद्यमी भया और उसके पुत्र मन्त्रियों सहित युद्धको उद्यमी भए तब भरत और माता केकईने श्राप द्रोणमेघके जायकर उसको समझाय विशिल्याका पठावना ठहराया तब भामण्डल हनुमान अंगद विशिल्याको विमान में बैठाय एक हजार अधिक राजाकी कन्या सहित लेय राम कटक में आए एक क्षणमात्र में संग्रामभमित्रायपहूंचे विमानसे कन्या उतारा ऊपर चमर दुरे हैं कन्या कमल सारिखे नेत्र सो हाथी घोड़े बड़े बड़े योधावों को देखतीभई ज्यों ज्यों विशिल्या कटकमें प्रवेश करे त्यों त्यों लक्ष्मणके शरीरमें साता होती भई वह शक्ति देवरूपिणी लक्षमण के अंग से निकसी ज्योतिके समूहसे युक्तमानो दुष्ट स्त्री घरसे निकसी देदीप्यमान अग्निके स्फुलिंगों के समूह आकाशमें उछलते सो वह शक्ति हनुमान ने पकड़ी दिव्य स्त्रीका रूपधरेतब हनूमान को हाथ जोड़ कहतीभई हे नाथ प्रसन्न होवो मुझेछोड़ो मेरा अपराध ! नहीं हमारी यहीरिति है कि हमको जो साधे हम उसके वशीभूत हैं में अमोघविजिया नोमा शक्ति विद्या तीन | !! लोकमें प्रसिद्ध हूंसो कैलाशपर्वत में बालमुनि प्रतिमा जोगधरे तिष्ठे थे और रावणने भगवान् के चैत्यालय में | For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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