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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra धा पररागा ॥७९४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरुष हैं सो तुम उत्तम पुरुष हो हमारा प्रथम उपकार किया ऐसे भाई से विरोधकर हम पै आए, और हमसे 'तुम्हारा कुछ उपकार न बना इसलिये मैं प्रति चाताप रूपहूं हो भामंडल सुग्रीव चिता रचो मैं भाई के साथ अग्निमें प्रवेश करूंगा तुम जोयोग्य होय सो करियो यह कहकर लक्ष्मणको रामस्पर्शने लगे तब जानन्द महा बुद्धिमान् मने करता भया हे देव यह दिव्यास्त्रसे मूर्छित भवा है तुम्हारा भाई सो स्पर्श तक यह अच्छा होजायगा ऐसे होय है तुम धीरता को धरो कायरता तजो आपदा में उपाय कार्यकारी हैं यह विलाप उपाय नहीं तुम सुभट जनहो तुमको विलाप उचित नहीं यह विलाप करना क्षुद्र लोगों का काम है इसलिये अपना चित धीरकरो कोई यक उपाय यही बने है यह तुम्हारा भाई नारायण है सो अवश्य जीवेगा अवार इसकी मृत्यु नहीं यह कह सर्व विद्याधर विषादी भए और लक्ष्मण से शक्ति निक्सनेका उपायअपने मनमें सबही चितवते भए यह दिव्यशक्ति है इसे कोई निवार समर्थ नहीं और कदापि सूर्य उगा तो लक्ष्मण का जीवना कठिन है यह विद्याधर बारम्बार विचारते हुए उपजी है चिन्ता जिनके सो कमरबंध यादिक सब दूर कर या निमिष में धरती शुद्ध कर कपड़े के डेरे खड़े किए और कटक के सात चोंकी बिठाई सो बड़े बड़े योधा बक्तर पहिरे धनुषवाण धारे बहुत सावधानी से चौकी बैठे प्रथम चौकी नील बैठे धनुषवाण हाथ में घरे है और दूजी चौकी नल बैठ गढ़ा कर लिये और तीजी चौकी विभीषण बैठे महा उदार मन त्रिशूल थांभे और कल्पवृक्षों . की माला रत्नों के आभूषण पहरे ईशानइन्द्र समान और चौथी चौकी तरकश बांधे कुमुद बैठे महा साहस घरे पांचवी होकी वरची संभार सुषेण बैठे महा प्रतापी और छठी चौकी महा दृढ़ For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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