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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र ॥६ ॥ भयरूपहै और वह अन्यायमार्गी है उसकी मृत्यु निकटाई है और अपनी सेनामें भी वडे २ योधा विद्याधर महारथी हैं विद्या विभवसे पूर्ण हैं हजारों श्राश्चर्यके कार्य जिन्होंने किये हैं तिनके नाम धनगति एकभृत गजस्वन, क्रूरकलि, किलभीम कुंड, गोरवि अंगद. नल नील तडिद्वक्रमंदर अर्शनी अर्णव, चन्द्रज्योत, मृगेंद्र, बजदृष्टि, दिवाकर, और उल्काविद्या लांगूलविद्या दिव्यशस्त्र विषे प्रवीण जिनके पुरुषार्य में विघ्न नहीं ऐसे हनूमान महाविद्यावान और भामण्डलविद्याधरोंका ईश्वर महेंद्रकेतु अति उग्रह पराक्रम जिसका प्रसन्नकीर्ति उपवति और उसके पुत्र महा बलवान तथा राजा मुग्रीवके अनेक सामन्त महा बलवानहैं परम तेजके धारक वरते हैं अनेक कार्यके करणहारे आज्ञाके पालनहारे ये बचन सुनकर विद्याधर लक्षमणकी ओर देखतेभए और श्रीरामको देखा सो सौम्यतारहित महा विकरालरूप देखा और भृकुटि चढ़ी महा भयंकरमानों कालके धनुषही हैं श्रीरामलक्ष्मण लंकाकी दिशा क्रोधके भरे लाल नेत्रकर चौके मानों राक्षसोंके क्षय करनेके कारणही हैं फिर वही दृष्टि धनुषकी ओर धरी, और दोनों भाइयोंका मुख महाक्रोधरूप होय गया कोपकर मंडितभए शिरके केश ढीलेहोय गए मानों कमलके स्वरूपही हैं जगतको तामसरूप तमकर व्याप्तकिया चाहें हैं ऐसा दोनों भाइयोंका मुख ज्याोतके मंडल मध्य देख सब विद्याधर गमनको उद्यमीभए संभ्रमरूप है चित जिनका राघव का अभिप्राय जानकर सुग्रीव हनुमानादि सर्व नाना प्रकार के भायुध और संपदा कर मंडित चलने को उद्यमी भए सम लक्षमण दोनों भाइयों के प्रयाण होने के वादियों के समूह के नादकर परित करी है दशोंदिशा सो मार्गसिवदी पंचमी के दिन सूर्यके उदय समय महा उत्साह सहित भले २ शकुन भए For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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