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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन होय भूमिमें पडा सोंने निरख निश्चय किया जो यह प्रागारहित है तब मुग्रीव रामलक्षमणकी महा स्तुति कर इनको नगर में लाया नगर की शोभाकरी मुग्रीवको सुताराका संयोगभया सो भोगसागर में मग्न होय गया रात दिनकी सुध नहीं सतारा बहुत दिनोंमें देखीसो मोहित होगया और नन्दनवन की शोभा को उलंघे है ऐसाअानन्द नामावन वहां श्रीगमकोराखे उसवनकी रमणीकताका वर्णन कौनकर सके जहां महामनोग्य श्रीचन्द्रप्रभुका चैत्यालयवहां राम लक्षमणने पूजाकरी और विराधित को श्रादिदे सर्व कटक का डेरा वनमेंभया खेदरहित तिष्ठे सुग्रीक्की तेरह पुत्री रामचन्द्र के गुण श्रवण कर अति अनुराग भरी वरिवेकी बुद्धि करती भई चन्द्रमा समान है मुख जिनका तिनके नाम मुनों चन्द्रामा, हृदयावली हृदयधर्मा,अनुधरी, श्रीकांता ,सुन्दरी सुरवती देवांगना समानहै विभ्रम जिसका मनोबाहनी मनमें बसन हारी चारुश्री मदनोत्सवा गुणवती अनेक गुणोंकर शोभित और पद्मावती फलेकमल समान है मुख जिसका तथा जिनाती सदा जिनपूजा में तत्पर ए त्रयोदश कन्या लेकर सुग्रीवरामपै श्राया नमस्कार करकहतामया हे नाथ ये इच्छाकर आपको बरेहे हे लोकेश इन कन्यावों के पति होवो इनका चित्तजन्मही से यह भया जो हम विद्याधरों को नवरेंआपके गुण श्रवणकर अनुरागरूप भईहैं यह कहकर रामको परणाई ये कन्याअति लज्जा की भरी नम्रीभूत हैं मुखजिनके समका प्राश्रय करती भई महामुन्दर नव यौवन जिनके गुण वर्णनमें नावे विजुरी समान सुवर्णसमान कमल के गर्भ समान श्रीर की कांति जिनकी उस कर श्राकाश में उद्योत भया वे बिनय रूप लावण्यता कर मंडित राम के समीप तिष्ठी मुन्दर है चेष्टा जिनकी यह कथा गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हे मगधाधिपति पुरुषों में सूर्य्य || For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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