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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir E99 पन समान दिव्य भोगोंकी स्वामिनी हो तब सीता बोली, कुशीले पुरुषका विभव मलसमानहै और शीलवंत हैं तिन के दरिद्र ही आभूषण हे जे उत्तम वंश में उपजे हे तिनके शीलकी हानिसे दोनोंलोक विगरेहैं इसलिये मेरे तो मरणही शरण है तू पर स्त्रीकी अभिलाषा राखे है सो तेरा जीतव्य बृथा है जो शील पालता जीवे है उसही का जीतब्य सफल है इस भांति जब सीता ने तिरस्कारकिया तब रावणक्रोध कर मायाकी प्रवृत्ति करताभया राणी अठरा हजार सब चलीगई और रावण के भयसे सूर्य अस्तहोय गया मद भरती मायामई हाथियोंकी घटा श्राई यद्यपि सीता भयभीत भई तथापि रावणके शरण न गई फिर अग्नि के स्फुलिंगे वरसते भए और हलहलाट करें हैं जीभि जिनकी ऐसे सर्प आए तथापि सीता रावणके शरण न गई फिर महा कर वानर फारे हैं मुख जिन्होंने उछल उछल पाए अति भयानक शब्द करतेभए तथापि सीता रावण के शरण न गई और अग्निकी ज्वाला समान चपल जिहा जिनकी ऐसे मायामई अजगर तिन्होंने भय उपजाया सो तथापि सीता रावण के शरण न गई फिर अन्धकार समान श्योम ऊंचे ब्यंतर हुकार शब्द करतेयाए भय उपजावतेभये तथापि सीता रावणकेशरण न गई इसभांति नानाप्रकार की चेष्टाकर रावणने उपसर्ग किये तथापि सीता नडरी रात्रि पूर्णभई जिन मन्दिरों में वादित्रोंके शब्द होतेभए दारों के कपाट उघरे मानों लोकों के लोचनही उधरे प्रात सन्ध्या कर पूर्व दिशा आरक्त भई मानों कुंकुम के रंगसे रंगीही है निशा का अन्धकार सर्व दूर कर चन्द्रमा को प्रभा रहित कर सूर्य का उदय भया कमल फूले पक्षी बिचरने लगे प्रभात भया तब प्रात क्रिया कर विभीषणादि रावण के भाई खरदूषण के शोक कर रावण पै अाए सो नीचा मुख किये धांसू डारते भूमि में तिष्ठे For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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