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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म पुराण ५४४ राजा से पूछ तव वह द्वारपाल अपनी ठौर दूजे को राख श्राप गजा सो जाय विनती करताभया हे महा राज आपके दर्शन को एक महा रूपवान पुरुष आयाहै द्वारे तिष्ठे है नील कमल समानहे वर्ण जिसका और कमल लोचन महा शोभायमान सौम्य शुभ मूर्ति है तब राजाने प्रधानकी और निरख अाज्ञा करी श्रावे तब द्वारपाल लक्षमण को राजाके समीप लेयगया सो समस्त सभा इस को अति सुन्दर देख हर्ष की वृद्धिको प्राप्त भई जैसे चन्द्रमाको देख समुद्रकी शोभा बृद्धिको प्राप्त होय राजा इसको प्रणाम रहित देदीप्यमान विकट स्वरूप देख कछु इक विकारको प्राप्त होय पूछता भया तुम कौन हो कौन अर्थ कहां से यहां आए हो तब लक्षमण वर्षाकाल के मैघ समान शब्द करते भए मैं राजा भरतका सेवकह पृथिवी के देखने की अभिलाषा से विचरूं तेरी पत्री का वृत्तान्त सुन यहां आया यह तेरी पुत्री महा दुष्ट मारणेवाली गाय है नहीं भग्न मए हैं मान रूपी सींग जिसके यह सर्वलोकोंको दुःखदायनी वर्ते है तब राजा शत्रुदमन ने कही मेरी शक्ति को जो सहार सके सो जितपद्माको बरे तब लक्षमण 'कहताभया तेरी एक शक्ति से मेरे क्या होय तू अपनी समस्त शक्ति से मेरे पंच शक्ति लगाय इस भान्ति राजाके और लक्षमण के विवाद भयो उस समय झरोखा से जितपद्मा लक्षमणको देख मोहित भई और हाथ जोड़ इशारा कर मने करतीभई कि शक्तिकी चोट मत खावो तब आप सैन करतेभए तू डरे मत इस भांति समस्या मेंही धीर्य बंधाया और राजा से कही क्यों कायर होय रहा है शक्ति चलाय अपनी शक्ति हमकोदिखा तब राजाने कही मूवा चाहे है तो झेल महाकोपकर प्रज्वलित अग्निसमान एक शक्ति चलाई सो लक्षमणने दाहिने करमें ग्रही जैसे गरुड सर्पको ग्रहे और दूसरी शक्ति दूसरे हाथ । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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