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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ॥५४३॥ लक्षमण किसी को पछते भए हे भद्र यह जितपद्मा कौन है तब वह कहता भया यह कालकन्या पंडितमाननीय सर्व लोक प्रसिद्ध तुमने क्या न सुनी इसनगर का राजा शत्रुदमन जिसके राणी कनक प्रभा उसके जितपद्मा पुत्री रूपवन्ती गुणवन्ती जिसने बदनकी कांतिसे कमल जीताहै और गात की शोभाकर कमलनी जीती सो इसलिये जितपद्मा कहावे है नवयौवनमंडित सर्पकला पूर्ण अद्भुत आभूषण की धरणहारी उसे पुरुष का नाम रुचे नहीं देवों का दर्शन भी अप्रिय मनुष्यों की तो क्याबात जिसके निकट कोई पुलिंगशब्दको उच्चारण भी न कर सके यहकैलाश के शिखर समान जो उज्ज्वल मंदिर उस में कन्यातिष्ठे है सैकड़ों सहेली जिसकी सेवा करे हैं जो कोई कन्या के पिताके हाथकी शक्तिकी चोटसे बचे उसे कन्या बरे, लक्ष्मण यह वार्ता सुन आश्चर्य को प्राप्त भयो और कोप भी उपजा मनमें विचारी महारार्जित दुष्ठ बेष्टासंयुक्त यह कन्या उसे देखू यह चितवन कर राजमार्ग होय क्मिान समान सुन्दर घर देखता और मदोन्मत्त हाथी कारीघटा समान और तुरंग चञ्चल अवलोकता और नृत्यशाला निरखता राजमन्दिरसे गया कैसा है राजमन्दिर अनेक प्रकारके झरोखोंकर शोभित नाना प्रकार ध्वजावों कर मण्डित शरद के बोदर समान उज्ज्वल महामनोहर रचनोकर संयुक्त ऊंचे कोटकर वेष्टित सो लक्ष्मण जाय द्वारपर ठगहा भया इन्द्रके धनुष समान अनेक वर्णका है तोरण जहाँ सुभदों के समूह अनेक देशों के नानाप्रकार भेट खेय कर आये हैं कोई निकसे है कोई जाय है सामन्तोंकी भीड़ होयरही है लक्ष्मण को द्वार में प्रवेश करता देख बारपाल सौम्य वापी से कहता भया तुम कौनहो और कौनकीआवासे आए हो कौन प्रयोजन राज मन्दिर में प्रवेश करोहो तब कुमारने कही राजाको देखा चाहे हैं तू जाय For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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