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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म www.kobatirth.org संसारकीच से पार उतारे हैं परम कल्याण के देनहारे हैं यह स्तुति पढ़ते ये दोनों चले जावें हैं इनको राजिनभक्तजान यच शांत होगये ये दोनों जिनालय में गए नमस्कारहोवो जिनमन्दिरको ऐसा कह दोनों हाथ जोड़ और चैत्यालयकी प्रदक्षिणा दई और अन्दरजाय स्तोत्र पढ़तेभए हे नाथ महा कुगतिका दाता मिथ्यामार्ग उसे तकर बहुत दिनमें तुम्हारा शरण गहा चौबीस तीर्थंकर अतीत काल के और चौबीस वर्तमान कालके और चौवीस अनागत कालके तिनको में बंदूं हूं और पंचभरत और पांच ऐरावत पंच विदेह ये पन्द्रह कर्म भूमि तिनसे जे तीर्थंकर भये और वरते हैं और अब होवेंगे तिन सबको हमारा नमस्कार हो जो संसार समुद्रसो तिरें औरतारें ऐसे श्रीमुनि सुत्रतनाथके ताई नमस्कारहो तीन लोक में जिनका यश प्रकाशक है इस भांति स्तुतिकर अष्टांग दण्डवतकर ब्राह्मण स्त्री सहित श्रीरामके अक्लो नको गए राम मार्ग में बड़े बड़े मन्दिर महा उद्योतरूप ब्राह्मणीको दिखाए और कहताभया ये कुन्द के पुष्पसमान उज्वल सर्व कामनापूर्ण मगरीके मध्य रामके मन्दिर हैं जिनकी यह नगरी स्वर्गसमान 'शोभे है इस भांति वार्ता करता ब्राह्मण राज मन्दिर में गया सो दूरही से लक्ष्मण को देख व्याकुलता 'को प्राप्त भया चित्त में चितारे है वह श्याम सुन्दर नील कमल संमान प्रभा जिस की में अज्ञानी दुष्ट स्वमों से दुःखाया तो मुझे त्रास बीन्ही पापनी जिल्हा महा दुष्टिनी कानन को कटुक वचन भाषे अब पापा पृथ्वी के चित्र में बैठूं अब मुझे शरण कोनका जो मैं यह जानता अक यहाँही नगरी बसाए रहे हैं तो देशत्यागकर उत्तरादेशाः चला जाताइस भांति विकल्परूपहोयं ब्राह्मणीको तज ब्राह्मम मागासो लक्ष्मणने देखा सब हंसकर राम को कहा वह माय माग है और मृगंकी न्याई व्याकुल होय ।।५२१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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