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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म "५२०॥ | दिवाए कपिलको जिन धर्म के विषय अनुरागी जान और भी अनेक ब्राह्मण शम भाम धारते भए मुनि सुव्रतनाथ का मत पायकर अनेक सुबुद्धि श्रावक श्राविको भए और जे कर्मके भारसे संयुक्तमान कर ऊंचा है मस्तक जिनका वे प्रमादी जीव थोड़ेही आयु में पापकर घोर नरक में जाय हैं कईएक उत्तम ब्राह्मण सर्व संगका परित्यागकर मुनिभए वैराग्यकर पूर्ण मनमें ऐसा विचार किया यह जिनेन्द्र का मार्ग अबतक अन्त जन्म में न पाया महा निर्मल अब पाया ध्यानरूप अग्नि में कर्मरूप सामग्री भाव घृत सहित होमकरेंगे सो जिनके परम वैराग्य उदयभया थे मुनिही भए और कपिल ब्राह्मण महा क्रियावान श्रावक भयो एक दिवस ब्राह्मणीको धर्मकी अभिलाषिनी जान कहता भया हे प्रिये श्रीराम के देखने को रामपुरी क्यों न चलें कैसे हैं राम महा प्रवल पराक्रमी निर्मलहै चेष्टा जिनकी और कमल। सारिखे हैं नेत्र जिनके सर्व जीवों के दयालु भव्य जीवों पर है बात्सल्य जिनका जे प्राणी अाशा में ] तत्पर नित्य उपाय में है मन जिनका दलिद्र रूप समुद्र में मग्न उदर पूर्ण में असमर्थ तिनको दरिद रूप समुद्र से पार उतार परम सम्पदा को प्राप्त करे हैं इस भांति कीर्ति तिनकी पृथिवी पर फैलरही है महा अानन्दकी करणहारी इसलिये हे प्रिये उठ भेट लेकर चलें और में सुकुमार बालकको कांधे लूंगा ऐसे ब्रह्मणीको कह तैसेही कर दोनों हर्ष के भरे उज्ज्वल भेषकर शोभित रामपुरीको चले। सो उनको मार्ग में भयानक नागकुमार दृष्टि पाए फिर वितर विकराल वदन हडहडांस करते दृष्टि आये इत्यादि भयानक रूप देख ये दोनों निकंप हृदय होयकर इस भांति भगवानकी स्तुति करते भये कि श्रीजिनेश्वरदेव के तांई निरन्तर मन वचन कायकर नमस्कार होवे कैसे हैं जिनेश्वर त्रैलोक्य कर वन्दनीक हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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