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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir पुराख .५१५॥ को आगेकर सीतासहित कुटीसे निकसे आप जानकीसे कहे हैं हे विप्रेधिक्कारहै नीचकी संगतिको जिस करकूरबचन सुनिये मन में विकारकाकारणमहापुरुषोंकर त्याज्यमहाविषम बनविषेवृक्षोंके साथ वासभला न नीचोंके साय और आहारादिक बिना प्राण जावेतो भले परन्तु दुर्जनके घर क्षणएकरहनायोग नहीं नदियों के तटपर पर्वतोंकी कंदराभे रहेंगे फिर ऐसे दुष्टके घर न आवेंगे इस भांति दुष्टके संगको निन्दते ग्राम से निकसे राम बनको गए वहां वर्षा समय आय प्राप्त भया । समस्त आकाशको श्याम करता हुवा और अपनी गर्जना कर शब्द रूप करी है पर्वतकी गुफा जिस ग्रह नक्षत्र ताराओं के समूह को दयंक कर शब्द सहित बिजुरी के उद्योत कर मानों अंबर हंसे है मेघ पटल ग्रीष्म के ताए को निवार कर पंयियोंको बिजुर्गरूप अंगुरियोंसे डरावता हुआ गाजे है श्याम मेघश्राकाशमें अंधकार करता हुआ जल की धाराकर मानों सीताको स्नान कराव है जैसे गज लक्ष्मी कोस्नान करावे वे दोनोंदीर वन में एक बड़ा बटकाक्ष जिसके डाहला घरके समान वहांबिराजे सो एक दंभकर्ण नामा यक्षस बट में रहताथा सो इनकोमहा तेजस्वी दे ख जायकर अपने स्वामीको नमस्कार कर कहताभया हे नाथ कोई स्वर्गसे आएहैं मेरेस्थानकमें तिष्ठेहैं जिन्होंने अपने तेजकर मुझस्थानसे दूरकिया है वहां मेंजायनसकहूं यक्षके वचनसुनकर यक्षाधिपति अपनेदेवों सहित बटकावृक्ष जहां रामलक्षमणथे वहां पाया महाविभव संयुक्त बनक्रीड़ा में आसक्त नूतनहै नाम जिसकासोदूर ही से दोनों भाइयोंको महारूपवानदेख अवध कर जानता भया कि ये बलभद्र नारायणहें तबवह इनके प्रभावकर अत्यन्त वात्सल्यरूप भया क्षणमात्र में महामनोग्यनगरी निरमापी ए वहां सुखसे सोते हुएप्रभात सुन्दर गीतोकेशब्दों करजागे रत्नजडित For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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