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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म ॥५१॥ में कमण्डलु चोटिक गांठ दिए लांबीडाढी यज्ञोपर्वात पहिरे उञ्छवृति कहिएअन्नको काटकर ले गए पीछे खेतनमें से अन्न कण बीन लावे इसभांतिहै आजीविका जिसकी सोइनको बैठे देख वक्र मुखकर ब्राह्मणीको दुवचन कहताभया हे पापिनी इनको घरमें क्यों प्रवेशदिया मैंबाज तोहे गायों के मठनमें बांधूंगा देख इन निर्लज्ज ढीठ पुरुष धूरकर धूसरोंने मेरा अग्निहोत्रका स्थान मलिन किया यह बचन सुन सीता रामसे कहती भई हे प्रभो इस क्रोधीके घरमें न रहना बनमें चलिये जहां नानाप्रकार के पुष्प फल उनसे मंडित वृत्त शोमे हैं निर्मल जलके भरे सरोवर, तिनमें कमल फूल रहे हैं और मृग अपनी इच्छासे क्रीडा करते हैं यहां ऐसे दुष्ट पुरुषों के कठोर बचनसुनिये हैं यद्यपियह देशधनसे पूर्ण है और स्वर्ग सारिखा सुन्दरहै परंतु लोग महाकठोरहैं और ग्रामीजनविषेषकठोरहीहायहें सोविपके रूखे बबन सुन ग्रामके सकललोक पाए इन दोनों भाइयोंका देवोंसमान रूप देख मोहित भए ब्राह्मण को एकांत लेयलोक समझावतेभए ये एक रात्रि यहांरहे हैं तेगक्या उजाडहै ये गुणवानविनयवानरूपवान पुरुषोत्तमतब द्विज सबसे लड़ा और सबसे कहा तुममेरे घर क्यों बार परेजाहु और मूर्ख इनपर क्रोध कर पाया जैसे श्वान गजपर आवे इनको कहताभयारे अपवित्रहो मेरेघरसे निकसो इत्यादि कुवचन मुन लक्षमण कोपभए उस दुर्जनके पांव ऊंचकर नाडि नीचेकर भूमाया भूमिपर पछाडने लगी तब श्री राम परमदयालुने उसे मने किया हे भाई यह क्या ऐसे दीनके मारने में क्या इसे छोड देवो इस के मारनेसे बड़ा अपयशहै जिनशासनमें शूरवीरको एते न मारने यति ब्राह्यण गाय पशु स्त्री बालक वृद्ध ये दोष संयुक्तहोय तोमी हनने योग नहीं इसभांति भाईको समझाया विप्र छुडायाऔर भापलक्षमण For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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