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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥४६॥ प्य धीर हैं धीर्यको घरे हैं यह समुद्रांत पृथिवी का राज्यपालवे समर्थ हैं और भाईभी इनके प्राज्ञाकारी हैं ऐसा राजा दशरथने चितवन किया कैसे हैं राजा मोहसे परांगमुख और मुक्तिके उद्यमी उस समय शरद ! ऋतु पूर्णभईऔर हिमऋतु का आगम भया कैसी है शरदऋतु कमलही हैं नेत्र जिसके और चन्द्रमाकी चांदनी सोही है उज्ज्वल वस्त्र जिसके सो मानों हिमऋतु के भयकर भागगई॥ ____ अथानन्तर हिमऋतु प्रकटभई शीत पड़ने लगा बृन दहे और ठंडी पवन कर लोक व्याकुल भए जिस ऋतु में धनरहित: पाणी जीर्ण कुटि में दुख से काल व्यतीत करे हैं कैसे हैं दरिद्री फट गए हैं अधर और चरण जिनके और बाजे हैं दांत जिनके और रूखे हैं केश जिनके और निरन्तर अग्निका है | सेवन जिनके और कभी भी उदर भर भोजन न मिले, कठोर है चर्म जिनका ।और घर में कुभार्या के वचनरूप सस्त्रों कर विदारा गया है चित्त जिनका । और काष्टादिक के भार लायवेको कांधे कुठारादिक को घरे बन वन भटके हैं और शाक वोपलि आदि ऐसे आहार कर पेट भरे हैं और जे पुण्य के उदय कर राजादिक धनाढ्य पुरुष भए हैं वे बडे महलों में तिष्ठे हैं और शीत के निवारण हारे अगर के घूप की सुगन्धिता कर युक्त सुन्दर वस्त्र पहरे हैं और सुवर्ण और रुपादिक के पात्रों में षट् रस संयुक्त सुगन्धि स्निग्ध भोजन करे हैं, केसर और सुगन्धादि कर लिप्त हैं अंग जिनके, और जिनके निकट धूप दान में धूप खेइये हैं। और परिपूर्ण धन कर चिन्तारहित हैं झरोखों में बैठे लोकन को देखे हैं। और जिन के समीप गीत नृत्यादिक विनोद होयवो करे हैं, रत्नों के ग्राभूषण और सुगन्धमालादिक कर मंडित सुन्दरकथा | में उद्यमी हैं और जिन के विनयवान् अनेक कला की जानन हारी महारूपवती पतिव्रता स्त्री हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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