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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म ५४६३॥ तू उसी गन्धारी नगरी में राजा भूतिकी राणी योजनगन्धा उसके अरिसूदन नामा पुत्र भया सो उस ने पुराण कवलगर्भ मुनिका दर्शन कर पूर्व जन्म स्मरण किया तब महाबैराग्य उपजा सो मुनिपद आदरा समाधि मरण कर ग्यारवें स्वर्ग में देवभया सो मैं उपमन्यु पुरोहितका जीव और तू राजाभूत मरकर मन्दारण्य में मृगभया दावानल में जरमूत्रा मरकर कलिंजनामा नीचपुरुष भया सो महा पापकर दूजे नरक गया सो मैं स्नेहके योगकर नरकमें तुझे संबोधा आयु पूर्णकर नरक से निकस रत्नमाली विद्याघरभया सो अब नरक के दुःख भूलगया यह वार्ता सुन राजा रत्नमाली सूर्यजय पुत्र सहित परप बैराग्यको प्राप्त भगा दुर्गति के दुख से डरा तिलकसुन्दर स्वामी का शरण लेय पिता पुत्र दोनों मुनि भए सूर्यजय तपकर दसमें देवलोक देव भया वहांसे चयकर राजा अरण्यका पुत्र दशरथ भयो सो सर्व भूतहित मुनि कहे हैं अल्पमात्र भी सुकृतकर उपास्तिक का जीव के एक भवमें बडके बीजकी न्याई बृद्धिको प्राप्तभया तू राजा दशरथ उपास्ति का जीव है और नन्दिवर्धन के भव विषे तेरा पिता राजानन्दिघोषमुनि होय चैवेक गया सो वहाँ से चयकर मैं सर्वभूतहित भया और जो राजाभूत का जीव रत्नमाली भयाथा सो स्वर्गसे प्राय कर यह जनक भया और उपमन्यु पुरोहित का जीव जिसने रत्नमाली को संबोधाथा सो जनकका भाई कनक भया इस संसार में न कोई अपना है न कोई पर है शुभाशुभ कर्मों कर यह जीव जन्म मरण करे हैं यह पूर्वभव का नसुन राजा दशरथ निसंदेह होग संयम को सन्मुखभया गुरुके चरणों को नमस्कारकर नगर में प्रवेश किया निर्मलहै अन्तःकरण जिसका मनमें विचारता भया कि यह महामंडलेश्वर पदका राज्य महा सुबुद्धि जे शब तिनको देकर में सुनिबत अंगीकार करूं राम घर्मात्मा हैं और महा For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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