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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म ३२॥ निमित्तज्ञानी जो कोई यथाथ जाने तो अपना कल्याणही क्यों न करें जिस से मोन के अविनाशी सुख पाइये निमित्त ज्ञानी पराई मृत्यु का निश्चय जान तो अपना मत्यु से निश्चयसे मृत्यु के पहिले आत्मकल्याण क्यों न करें निमित्तज्ञानी के कहिने से मैं मर्ख भया खोटे मनुष्यों को शिक्षासे जे मन्द बुद्धि हैं वे अकार्य विषे प्रवरते हैं यह लंकापुरी पाताल है जेल जिस का ऐसा जो समुद्र उसके मध्य तिठे जो देवनहूं को अमम्य वहां विचारें भमिगोचरियों की कहांसे गम्य होय में यह अत्यन्त अयोग्य किया फिर ऐसा काम कबहूं न करूं ऐसी धारणाधार उत्तम दीप्ति से युक्त जैसे सूर्य प्रकाश रूप विचरे. तैसे मनुष्यलोक में रमते भए । इति तेईसा पर्य पूर्ण भया । अथानन्तर गौतम स्वामी कहे हैं हे पिक अरण्यके पुत्र दशरथने पृथिवीपर भ्रमण करते केकईको परशा सो कथों महा आश्चर्य का कारण त सुन उत्तर दिशा विषे एक कौतुकमंगल नामा नगर उसके पर्वत समान ऊंचाकोट वहां रामाशममति राजकरेसो बहशुभमति नाममात्रनहीं यथार्थशुभमतिहींहै उसकी राणी पृथुभी गुण रूप प्राभरणोंसे मंडित उसके केकई पुत्रीद्रोणमेघपुत्रभए जिनके गुणदशादिशामें व्यापरहे केकई अंतिसुन्दर सर्वअंग मनोहर अद्भुत लक्षणों की धरणहारी सर्वकलावों की पारगामिनी अति शोभती भई सम्यक्दर्शन से संयुक्त श्राविका के व्रत पालन हारी जिन शासन की वेत्ता महा श्रद्धावन्ती तथा सांख्यं पातजल वैशेषिक वेदांत न्याय मीमांसा चादिक पर शास्त्ररहस्यकी ज्ञाता तथा लौकिक शास्त्र शृंगार्गदिक तिनका रहस्य जाने नृत्यकलामें अतिनिपुण सर्व भेदोंसे मंडित जो संगीत उसे भली भान्ति जाने उर कंठ सिर इन तीन स्थानकसे स्वर निकसे हैं स्वरोंके सात भेदहैं षडज १ ऋषभ For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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