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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म पराम ॥३०॥ करण करे वहां कुटम्बकी कैसी पाशा वे तो सब राजाके आधीनहें ऐसा निश्चयकर सबसे उदास होय | सखीसे कहती भई आंसूत्रों के समूह कर भीज गया है अंग जिसका हे प्रिये ! यहां सर्व पाषाण चित्त हैं यहां कैसावास इसलिये बनमें चलें अपमानसे तो मरना भला ऐसाकहकर सखीसहित बनको चली मानो मृगराजते भयभीत मृगीही है शीतउष्णोरवातके खेदसे महा दुखकर पीडित बनमें बैठ महा रुदन करती भई हायहाय में,मन्दभागिनी दुखदाई जो पूर्वोपार्जित कर्म उससे महा कष्टको प्राप्त भई कौनके शरणे जाऊं कौन मेरी रक्षा कर मैं दुर्भाग्यसागरके मध्य कौन कर्मसे पड़ी नाथ मेरा अशुभ कर्मका प्रेग कहांसे आया काहेको गर्भ रहा मेरा दोनोंही ठौर निरादर भया मातानेभी मेरी रक्षान करी सो वह क्याकरे अपनेधनी की अाज्ञाकारिणी पतिव्रतावोंका यही धर्म है और नाय मेरा यह वचन कहगयाथा पितेरे गर्भकी वृद्धि से पहिले मैं अाऊंगा सो हाय नाथदयावान होय वह बचन क्योंभूले और सासूने बिना परखे मेरात्याग क्यों किया जिनके शीलमें संदेह होय तिनके परखनके अनेक उपायहें और पिताको में बाल अवस्थामें अति लाडिलीथी निरन्तर गोदमें खिलावते थे सो विना परखे मेरा निरादर किया उनकी ऐसी बुद्धि उपजी और माताने मुझे गर्भधारी प्रतिपालन किया अब एकवातभी मुखसे न निकाली कि इसके गुण दोषका निश्चयकर लेवें और भाई जो एक माताके उदरसे उत्पन्न भयाथा वहभी मुझे दुखिनी को न राख सका सबही कठौर चित्त हो गये जहां माता पिता भ्रातही की यह दशा वहां काका बाबाके दूर भाई तथा प्रधान सामन्त क्या करें और उन सबहीपर क्यादोष मेरा जो कर्म रूप वृक्ष फलासोअवश्य भोगना। इस भांति अंजनी विलाप करे सो सखी भी इसके लार विलाप करें मनसे धीर्य जाता रहा | For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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