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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण ॥३०॥ अत्यन्त लज्जा को प्राप्त भई विलखी होय वस्त्र से माथा ढाक द्वारे खड़ी है आपके स्नेहकर सदालाडला है सो तुम दया करो यह निरदोष है मन्दिर माहि प्रवेश करावो और केतुमतीकी क्रूरता पृथिवी विषे प्रसिद्ध है ऐसे न्याय वचन महोत्साह सामन्त ने कहे सो राजाने कान न धरे जैसे कमलों के पत्रों में जल की बंद न ठहरे तैसे राजाके चित्तमें यह बात न ठहरी राजा सामन्त से कहतेभए यह सखी वसन्तमाला सदा इसके पास रहे और इसीके स्नेह के योगसे कदाचित सत्य न कहे तो हमको निश्चय कैसे आवे इसलिये इसके शीलविषे संदेह है सो इसको नगरसे निकास देवो जब यह बात प्रसिद्ध होयगी तो हमारे निर्मल कुल विषे कलंक आवेगा जे बडे कुलकी बालिका निर्मल हैं और महा विनयवन्ती उत्तम चेष्टा की धारणहारी हैं वे पीहर सासरे सर्वत्र स्तुति करने योग्य, जे पुण्याधिकारी बडे पुरुष जन्महीसे निर्मल शील पालें हैं ब्रह्मचर्यको धारण करे हैं और सर्व दोषको मूल जो स्त्री तिनको अंगीकार नहीं करें हैं वे धन्य हैं ब्रह्मचर्यसमान और कोई व्रत नहीं और स्त्री के अङ्गीकारमें यह फल होयहै जो कुपूत बेटा बेटी होंय और उनके अवगुण पृथिवी विषे प्रसिद्ध होंय तो पिता कर धरती में गड जाना होय है सबही कुलको लज्जा उपजे है मेरा मन श्राज अति दुःखित होयगया है में यह बात पूर्व अनेकबार सुनीथी कियह भरतारके अप्रिय है और वह इसे आंखोंसे नहीं देखे है सो उसकर गर्भकी उत्पतिकैसे भई इसलिये यह निश्चयसेती सदोषहै जो कोई इसे मेरे राज्यमें राखेगा सो मेरा शत्रु है ऐसे बचन कहकर राजाने कोपकर जैसे कोई जानेनहीं इसभांति इसको द्वारसे काढ़ दीनी सखीसहित दुखकी भरी अंजना राजाके निजवर्गके जहां २ श्राश्रयके अर्थ गई उन्होंने श्राने न दीनी कपाटदिए क्योंकि जहां बापही क्रोधायमान होय निग For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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