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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म पुराण ॥२३॥ इसलिये खरदपन को छुड़ावना और वरुण को जीतनासो तुम अवश्याइया ढोल करो मत तुम सारिखे । पुरुष कर्तव्य में न चूक अब सब विचार तुम्हारे प्रावने पर है यद्यपि सूर्य तेजका पुंज है तथापि अरुण सारिखा सारथी चाहिए तब राजा प्रल्हाद पत्र के समाचार जान मंत्रियों सों मंत्र कर रावण के समीप । चलने का उद्यमी भए तब प्रल्हाद को चलता सुनकर पवनंजय कुमार ने हाथ जोड़ गोड़ों से धरती स्पश। नमस्कार कर विनती करी । हे नाथ ! मुझ पुत्र के होते संते तुमको गमन युक्त नहीं पिता जो पुत्र को। पाले है सो पुत्र का यही धर्म है कि पिता की सेवा कर जो सेवा न करे तो जानिये पुत्र भया ही नहीं इसलिये । आप कच न करें मुझे आज्ञा करें तब पिता कहते भए हे पुत्र तुम कुमार हो अबतक तुमने कोई खेत देखा । नहीं इसलिये तुम यहां रहो मैं जाऊंगा तब पवनंजयकुमार कनकाचल के तट समान जो वक्षस्थल उसे । ऊंचा कर तेज केधरणहारे वचन कहते भए हे तात! मेरी शक्ति का लक्षण तुमने देखा नहीं जगत् केदाह । में अग्नि के स्फुलिंगेकाक्या बीय परखना तुम्हारी आज्ञारूप आशिषा कर पवित्र भया है मस्तक मेरा ऐसा । जो मैं सो इंद्र को भी जीतने को समथ हूं इसमें संदेह नहीं। ऐसा कह कर पिता को नमस्कार कर महाहर्ष , संयुक्त उठकर स्नान भोजनादि शरीर की क्रिया करी, और आदर सहित जे कल में बृद्ध हैं तिन्हों ने | असीस दीनी भाव सहित अरिहंत सिद्धको नमस्कार कर परम कांति को धरताहुवा महामगल रूप पिता से विदा होने आया सो पिता ने और माता ने मंगल के भय से आंसू न काढ़े आशीर्वाद दिया हे पुत्र ! | तेरी विजय होय छाती से लगाय मस्तक चंबा पवनंजयकुमार श्री भगवान का ध्यान घर मात पिता को प्रणाम कर जे परिवार के लोग पायन पड़े तिनको बहुत धीय बंधाय सब से अतिस्नेह कर विदा । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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