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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण __ अथानन्तर पवनंजयकी सेना के लोक मन में प्राकुल भए और विचार करते भए कि निःकारणच १२८७॥ | काहे का यह कुमार विवाह करने आया था सो दुलहिन को परण कर क्योंन चले, इसको कोष काइसे भया इसको कौन ने क्या कहा, सर्व वस्तु की सामग्री है काहु वस्तुकी कमी नहीं इसका सुसरा बड़ा राजा कन्या अति सुन्दरी यह पराङ्मुख क्यों भया तब कैयक हंस से कहते भए इसका नाम पवनंजय है सो अपनी चंचलता से पवनहूं को जीते है और कैयक कहते भए अभी स्त्री का सुख नहीं जाने है इसलिये ऐसी कन्या को छोड़ कर जाने को उद्यमी भयाहै,जो इसके रतिकेलि का राग होय तो जैसे वनहस्ती प्रेम के बंधन से बंधे है तैसे यह बंध जाय, इस भांति सेना के सामंत कहे हैं और पवनंजय शीघ्र गामी वहानपर चढ़ चलने को उद्यमी भए तब कन्या का पिता राजा महेंद्रकुमार का कूच सुन कर अति श्राकुल भया समस्त भाईयों सहित राजा प्रल्हाद पैाया प्रल्हाद और महेन्द्र दोनों प्राय कुमार को कहते भए हे कल्याण रूपहमको शोक का करणहारा यह कूच काहे को करियेहै अहो कौनने आपको क्या कहा है शोभायमान तुम कौनको अप्रियहो जो तुमको न रुचे सो सबही कोन रुचे तुम्हारे पिताका और हमारा बचन जोसदोप होय । तो भीतुमको मानना योग्य है सो तो हम समस्तदोष रहितकहे हैं तुम को अवश्य धारना योग्इहै हेशूरवीर कूच से पीछे फिरोहमारे दोनों के मनवांछित सिद्ध करो। हम तुम्हारे गुरु जन हैं सो तुम सारिखे सत् पुरुषों को गुरुजनों की आज्ञा आनंद का कारण है ऐसा जब राजा महेन्द्र ने और प्रल्हाद ने कहा तब यह कुमार धीरवीर विनय कर नम्री भूत भयाहै मस्तक जिसका जब तातने और ससुरने बहुत अादरसे हाथ पकड़े तब यह कुमार गुरुजनोंकीजो गुरुतासो उलंघनेको असमर्थ भया उनकी आज्ञा सेपीये बाहुडा और For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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