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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥२८६ प्रहस्त मित्रको कहतेभए अत्यंत अरुचिको धेरै अंजनीसे बिमुखहै मनजिनका हे मित्र यहां अपने डेरे हैं। पुराण सो यहांसे उसका स्थानकसमीपहै सो यहां सर्वथा नरहना उसको स्पर्शकर पवनश्रावे सो मुझे न मुहावे इस लिये उठो अपने नगरचलें ढील करनी उचित नहीं तब मित्रकुमारकी आज्ञा प्रमाण सेनाके लोगों को पयानेकी आज्ञा करताभयासमुद्रसमान सेनास्थ घोडे हाथी पयादे इनका बहुतशब्दभया कन्याकानिवास नजीकही है सो सेनाके पयानके शब्दकन्याके कानमें पडे तब कुमारका कूचजानकर कन्या अतिदुखित भई वे शब्द कानको ऐसे बुरे लगे जैसे बजकी शिला कानमें प्रवेशकरे और ऊपरसे मुद्गरकी घात पडे मनमें विचारती भई हायहाय मुझे पूर्वोपार्जित कर्मने महानिधान दियाथा सो छिनायलिया क्या करूं अब क्याहोय मेरेयह मनोरथथा कि इस नरेंद्रके साथक्रीडा करूंगी परंतु औरही भांति दृष्टिश्रावे है तो अपराध कछु न जान पडे है परंतु यहमेरी वैरिन मिश्रकेशी इसने निन्द्य बचनकहेथे सो कभी कुमार कुमारको यहखबर पहुंची हाये और मेरेमें कुमाया करीहोय यह विवेकरहित पापिनी कटुभाषिणी धिक्कार इसे जिसने मेरा प्राणवल्लभ मुझसे कृपारहित किया अब जो मेरे भाग्य होय और मेरा पिता मुझपर कृपा कर प्राणनाथ को पीछा बहोडे और उनकी सुदृष्टि होय तो मेरा जीतव्य है और जो नाथ मेरा परित्याग करे तो मैं आहार को त्याग कर शरीर को तजूंगी ऐसा चिन्तवन करती वह सती मूळ खाय धरती पर पड़ी जैसे बलि की जड उपाड़ी जाय और वह श्राश्रय से रहित होय कुमलाय जाय तैसे कुमलाय गई तब सर्व सखीजन यह क्या भया ऐसे कहकर अति संभूमको प्राप्तभई शीतल क्रियासे इसे सचेत किया तब इससे मूर्याका कारण पूछा सो यह लज्जासे कह न सके निश्चल लोचन होय रही। For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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