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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण पन्न । पुष्प उमको आदि देय श्रमेक सुन्दर जे द्रव्य उनसे पूजकिरी धीरे अनेक विद्याधरोंके राजा रावणकी icon प्रज्ञा श्रीशिषांकी न्याई माथे चढाय युखको चले राना संहसरश्मिने परदलको प्रावतादेन स्त्रियोंको कहा कि तुम डरो मत, घीर्य वैधाय पाप अलसें निकसे कलकसाठ शब्द सुन परदल पाया जान माहिष्मती नमर्स के योषां सजकर हाथी घोड़े रथों पर चढ़े नानाप्रकारके आयुध बरे स्वामी धर्मके अत्यन्त अनुराग से राजाके ढिगाये जैसे सम्मेद शिखर पर्वतको एकहीकाल बहीं ऋतु आश्रयकरें जैसे समस्तयोधा तत्काल राजापै पाए विद्याधरोंकी फौज श्रावती देखकर सहसूरश्मिके सामन्त जीतव्यकी आशा छोड़कर घनव्यूह रचकर धनीकी आज्ञा विनाही लड़नेको उद्यमी भये जब रावण के योधा युद्ध करनेलगे तब श्राकाशमें देवनकी वाणी भई कि अहो (यह बड़ी अनीतिहै ये भूमिगोचरी अल्पबली विद्या बलकर रहित माया युद्ध को कहां जाने इनसे विद्याधर मायायुद्ध करें यह क्या योग्यहै) और विद्याधर घने यह थोड़े ऐसे अाकाश विषे देवन के शब्द सुनकर जे विद्याधर सत्पुरुष थे वह खज्जोवान होय भूमि में उतरे दोनों सेना में परस्पर युद्ध भया रथोंके, हाथियोंके, घोड़ों के, असंवार तथा पियादे तलवार, बाण, गदा, सेल इत्यादि आयुधों कर परस्पर युद्ध करनेलगे सो बहुत युद्ध भया परस्पर अनेक मारेगये न्याय युद्धभया शस्त्रों के प्रहार कर अग्नि उठी सहसरश्मि की सेना रावण की सेना कर कळूइक हटी तब सहस्ररश्मि स्थपर चढकर यद्धको उद्यमी भए माथे मकट घरे वक्तर पहरे धनषको धारें अति तेजको धरे विद्याधरोंके बलको देखकर तुच्छमात्रभी भय न किया तब स्वामीको तेजवन्त देख सेनाके लोग जे हटेथे वे आगे प्रायकर युद्ध करनेलगे दैदीप्यमानहें शस्त्र जिनके और जे भूलगये.हे घावोंकी वेदना ये रणधीर भूमि For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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